Thursday, September 20, 2012

Aur Mai Katil Huwa


   
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और मैं कातिल हुआ...?
जाने किसने किया था कत्ल और मैंं कातिल हुआ,
चश्मदीदी हलफनामा कोर्ट मेंं दाखिल हुआ,
गया था मातमपूर्सीर् मेंं, साथियों के साथ मैं,
लौटती में, कत्ल के आरोप में शामिल हुआ।
माना, मैंने भी बार-बार अपराध बहुत भारी किया,
हुक्मरां को ललकारता हर समय पंगा लिया,
पर हू¡ मैं लाचार फितरत से तो फिर अब क्या करूं,
सच के लिए, हर हाल में अन्याय से भिड़ता रहा।
न सुना, न आगे सुनेंगे एफ.आई.आर. इस तरह का
आज तक लि-िखत या अलि-िखत एफ.आई.आर. होता रहा,
पर अजूबा प्रतिवेदन इस केस में शामिल हुआ,
घंटों बाद चौवालीस पेजी टंकित एफ.आई.आर. दाखिल हुआ।
जिस समय जी.कृष्णैया मारे गये मुजफरपुर में,
उसी समय वायरलेस पर हम पकड़यो हाजीपुर में,
रास्ते में आधे दर्जन थाने हैं, वायरलेस सहित
फिर बताओ कैसे पहु¡चा उड़कर हाजीपुर मैं?
नहीं पूछा किसी ने आजतक, तह में पहु¡च इस बात को
और न ही उघेड़ा, इस सच्चाई के एहसास को,
जब जल रहा पूरा शहर, सामूहिक हत्या के खिलाफ
तो डी.एम. गोपालगंज ही मुजफरपुर क्यों गया?
आरोप हम पर है कि हमने भड़काÅ भाषण दिया,
हजारों की भीड़ को, ध्वनि विस्तारक बिना सम्बोधित किया,
साथ चलते सैकड़ाें वि-िध-व्यवस्था के संवेदको,
या कि चन्द फर्लांग पर सदर थाना में अफसरो!
तुम वहा¡ थे Å¡घते, या कर्तव्यविमूढ़ बैठे रहे?
माना हमने भड़काया और कत्ल डी.एम. का हुआ,
और कोई मारकर स्पॉट से जाता रहा
दर्जनों तैनात सशस्त्र बल थे, फिर क्या कर रहे?
हत्यारे क्यों न एक भी पकड़ाए या मारे गये?
यह भी एक इल्जाम है कि हमने भड़काया उसे
वो कि जिसके हाथ में भरी हुई पिस्तौल थी
और जो कि मृतक का अपना सहोदर अनुज था,
बोलो! जो कि पूर्व से, भरा हो प्रतिहिंसा की आग में,
क्या उसे भड़काने की जरूरत किसी को है, भला?
यह तेरा आरोप डी.एम. को आØाेशित भीड़ ने
ईंट, लाठी, पत्थरों से पीटकर मुर्दा किया,
फिर अराजक भीड़ से अवतरित भुटकुन कोई
कनपटी में तीन गोली मारकर चलता बना?
जा¡बाजो! तुम मेरे इस प्रश्न का उÙरा तो दो,
तुम्हारे ही इल्जाम को गर मुसल्सल मान लें,
तो बताओ, नृशंसता से कत्ल डी.एम. का हुआ,
और तुम सब 'मूकदर्शक' गोलिया¡ गिनते रहे?
पोस्टमार्टम में पिटाई के दाग सारे धुल गये,
पर माथे में गोलियों के सुराख बाकी मिल गये?
बच नहीं सकता जो मिनटों गोलिया¡ खाने के बाद,
तो बताओ एस.के.एम.सी.एच. मेंं किसका चला घन्टों इलाज?
फिर 'स्पेशल कोर्ट' में 'स्पेशल जज' लाया गया,
दे दनादन 'प्रमोशन', ला यहा¡ बिठाया गया,
'त्वरित' न्यायालय में 'त्वरित' सुनवाई शुरू हुई,
चार को आजीवन कारा, तीन को सजा फा¡सी हुई।
ªर्द्यावर, गार्ड, फोटोग्राफर चल रहे थे साथ-साथ,
नहीं सुनी इनमेंें किसी ने गोली की कोई आवाज,
और न ही बतलाया इनने हमारा नाम ही,
फिर भी आया फैसला-ऐतिहासिक, लाजवाब?
कोर्ट में सोलह वर्षों लम्बी कहानी यह चली,
डेढ़ दशकों बाद भी आधी गवाही ना मिली,
भूले से भी पेश न कर पाया कोई पब्लिक गवाह,
आखिरकार इस फैसले ने कर दिया दो घर तबाह।
जिसमे मैं था ही नहीं, उस गुनाह का मिला सिला,
कोई बताए, फैसले से बेचारी उमा को क्या मिला?
उठ गया साया बाप का उमा कृष्णैया के बच्चों के
या फिर बिन बाप के बच्चे लवली के ही भटके।
शोर डी.एम. का हुआ और केस दिल्ली तक गया,
रास्ते मेंे रिहा, आजीवन, फा¡सी का सिलसिला चला,
कोई बताए छोटन सहित उन निरपराधों का क्या हुआ?
Ùााधीशों ने साजिशन जिसे मौत की नींद सुला दिया।
सबके लिए अगर देश का संविधान एक है,
'कानून अपना काम करेगा', यह इरादा नेक है,
डी.एम. और जन साधारण में गर नहीं कोई भेद है,
फिर पा¡च के संहार पर दशकों की चुप्पी, खेद है।
विस्फारित नेत्रों से देखा, दुनिया ने घिनौना यह कमाल,
निर्दोष कह जिसने मचाया, था कभी भारी धमाल,
दोस्त वही सहयोग से, जब सÙाा में पहु¡चा एक दिन,
तेरह वर्षों बाद फिर खुद चलाया 'स्पीडी टªयाल'
कानून यह कहता कि अभियोजन पक्ष यह साबित करे
आरोप जो अगले पर लगाया हो वह सच्च्ाा या गलत,
फैसला जो आया 'सुप्रीम कोर्ट' का मेरे खिलाफ
माननीय न्यायाधिशों ने पूरा विधान ही दिया उलट।
सवाल सिर्फ आनन्द मोहन का नहीं है दोस्तो
फैसला यह आगे से बन जाएगा बेशक नजीर,
हर विवश, लाचार काटा जाएगा इस कानून से
काट पाया नहीं जिसे अब तक कोई जालिम शमशीर।
एक डी.एम. और मारा गया था गोपालगंज में,
मारने-उकसाने वाले को मिली थी फा¡सी की सजा,
मामला जब पहु¡चा 'सुप्रीम कोर्ट' में इसी तरह
हत्यारोपी को सजा और 'आँर्डरगीवर' हुआ रिहा।
परन्तु मेरे मामले में ही ऐसा क्यों हुआ ?
एक जैसे मामले में माननीय 'सुप्रीम कोर्ट' ने
एक को रिहा किया और एक को 'आजीवन' सजा ?
कानूनविदों ने न्याय का सिद्धांत यह प्रतिपादित किया,
गुनहगार सैकड़ांे छूट जाए, पर बेगुनाह कोई ना फंसे
पा¡च हजार ुद्ध भीड़' का इल्जाम एक के सर चढ़ा, 
फैसला जो आया सामने, उस पर रोयें या हंसे ?                                             
न्याय की आ¡खों पर पê, और खुदा-खुद मूक हो,
तो बताओ पीडि़त-वंचित किससे कहे अपनी व्यथा,
आहों और आ¡सुओं में डूबेगी, एक दिन पूरी व्यवस्था,
जब 'न्याय', ईश्वर से उठेगी आम जन की आस्था।
Ùाा की साजिशों में जहा¡ स्वयम् फंसा भगवान है,
नीति-नियंता वह बना, जो खुद बड़ा बेईमान है,
तर्कों-आरोपों में जूझता बेचारा-विवश इनसान है,
न्याय नहीं, यह फैसला है, इंसाफ का अपमान है।
'न्याय की देवी' ने बांध रखी है, काली प-िêया¡,
इंसाफ की चौखट, सच्चाई भर रही है सिसकिया¡,
बुराई है अêहास करती, रो रही अच्छाइया¡,
कानून को पैरों तले जो कर रहा रूसवाइया¡,
राज, धन, बल ठोकरों में उड़ताी इसकी धज्जिया¡
अच्छा होता देश में, जनतंत्र आता ही नहीं,
या अगर आता तो फिर प्रतिपक्ष होता ही नहीं,
फिर विपक्षी को न मिलती प्रतिरोध की ऐसी सजा,
Ùााधीश ही लूटते, Ùाा का निष्कंटक मजा।
अन्त में षडयन्त्रकारो! सुन लो कानें खोलकर,
दो सजाए मौत, या जिन्दगी जेल में जाए गुजर,
चुप नहीं मैं बैठ सकता, पक्षपात, अन्याय पर,
बोलता, भिड़ता रहूंगा, खम औ' छाती ठोककर।


    - आनंद मोहन
23.05.2012
        मंडल कारा, सहरसा