Saturday, October 18, 2014

तंत्र की नगरी कोशी क्षेत्र

    तंत्र की नगरी है कोशी क्षेत्र 

प्राचीन काल से ही तंत्र आध्यात्मिक मार्ग के रूप में हम सबो के बीच रही है, मानवीय अनुभव से भौतिक व यौन ऊर्जा से बाहर निकलना काफी मुश्किल कार्य है.लेकिन लेकिन तंत्र मार्ग के जरिये हम आसानी पूर्वक न केवल बाहर निकल सकते है बल्कि हम अपनी चेतना का विस्तार भी तंत्र जैसे आध्यात्मिक मार्ग के जरिए कर सकते है. कोशी क्षेत्र में भी तंत्र का कई अभूतपूर्व संगम स्थल रहा है. बस इसे तलाशने की जरुरत है. कोशी प्रमंडलीय मुख्यालय सहरसा से सटे मात्र 17 किलो मीटर पश्चिम महिषी गांव स्थित माँ उग्रतारा स्थान भी कही न कही से तंत्र शक्ति पीठ के रूप में ही विख्यात है. तंत्र नगरी के कारण ही इन क्षेत्रों में समय-समय पर पशु बलि प्रदान करने की परम्परा है. इन क्षेत्रों में मैया विषहरा की भी खूब पूजां होती है और मंत्र से सर्प दंश के भी झार-फूक के जरिये उपचार होती है.
 
गुरुदेव आचार्य जीवेश्वर मिश्र 
 कर्णपुर का बाबापीठ  

इसी कड़ी में कोशी प्रमंडलीय मुख्यालय सहरसा से महज 36 किलो मीटर उत्तर सुपौल जिले के कर्णपुर गांव स्थित बाबा निश्चलानंद जी का समाधी स्थल बाबा पीठ के रूप में स्थापित है. सहरसा-सुपौल मुख्य मार्ग से सटे सड़क से पश्चिम निर्माणाधीन बाबा पीठ मंदिर है. देश के चार स्थानों में गुरुदेव आचार्य जीवेश्वर मिश्र के द्वारा अपनी अराधना से शक्ति पीठों की स्थापना की गयी है. इनमे कर्णपुर सुपौल का बाबा पीठ भी एक शक्ति पीठ है. यहाँ सम्पूर्ण नवरात्रा के मौके पर देश सहित नेपाल के विभिन्न हिस्सों से तंत्र पर सिद्धता पाने हेतु तंत्र साधकों का साधना के लिए आगमन होता है. आचार्य जीवेश्वर मिश्र ने देश के सुपौल जिले के कर्णपुर गांव स्थित बाबा पीठ, दरभंगा जिले के बेनीपुर स्थित सदा शिव धाम, झारखंड राज्य के दुमका जिला के बासुकीनाथ धाम स्थित तंत्र योग पीठ, उत्तर प्रदेश के जिला मिर्जापुर विंध्याचल धाम स्थित पक्का घाट पर अखिल भारतीय शक्ति संघ नामक पीठों की स्थापना कर साख शक्ति के आराधको के प्रति महती कृपा प्रदान की है.    

मैया दक्षिनेस्वरी काली

बाबा निश्चलानंद की मूर्ति 
 पीठ के अराधना की खासियत





सुपौल जिले के कर्णपुर गांव स्थित बाबा पीठ वास्तव में बाबा निश्चलानंद का समाधी स्थल है. जहाँ दक्षिनेस्वरी काली व एकादश रूद्र स्थापित है. यहाँ दस महाविधा के नियमित जप व हवन की परम्परा है बल्कि साधकों के दूवारा हर रोज जप व हवन कर पूजा-अर्चना की जाती है. यहाँ दस विधाओं में काली, तारा, त्रिपुरसुंदरी, भुनेश्वरी, भैरवी, क्षिणमस्तिका, धूमावती, बंग्लामुखी, मातंगी और लक्ष्मी की नियमित हवन-पूजन की जाति है. अभिषेक साधकों द्वारा बटुक भैरव का भी साधना करते हैं.




एकादश रूद्र 




 हर रोज दोनों समय बाबा निश्चलानंद की आरती-पूजां के साथ-साथ शिवाबली (सियार), कागबली (कौवा) व भैरवबली (कुत्ता) को भोग लगायी जाती है. लेकिन यहाँ रात्रिकालीन भोग का साक्षात ग्रहण करने शिवाबली का आगमन श्रधालुओं के लिए सबसे आश्चर्य व आकर्षण का केंद्र है. शिवाबली का साक्षात दर्शन मात्र से ही श्रधालुओं को माँ दक्षिनेस्वरी काली के प्रति निष्ठा पूर्ण हो जाती है.  
शिषयों के संग गुरुदेव आचार्य जीवेश्वर मिश्र






Monday, September 29, 2014

कोशी में बलि प्रदान की गजब परम्परा:-






कोशी की संस्कृति:
मईया की महिमा अपरंपार
कही पशु बलि तो कही दूध की ढार
  •         तारा स्थान में अष्टमी को बेजुबान पशुओ को दी जाती है बलि
        बाबा कारू स्थान में सप्तमी को चढ़ती है दूध की ढार



अराध्य देवी वशिष्ट अराधिता माँ तारा मंदिर महिषी 
कोशी की गजब संस्कृति है. नवरात्रा के मौके पर कहीं पशु बलि तो कहीं दूध की ढार
 चढ़ती है. श्रद्धालुओ के बीच मईया की पूजा-अर्चना कर खुश करने के अलग-अलग
 तरीके हैं. सहरसा जिले के महिषी गांव स्थित अराध्य देवी वशिष्ट अराधिता माँ तारा
 को बलि प्रदान कर तो संत बाबा कारू खिरहरी को दूध की ढार चढ़ाई जाती है.
 नवरात्रा के अष्टमी के अवसर पर धर्म के आडम्बरदारो दुआरा महिषी गांव स्थित
 अराध्य देवी वशिष्ट अराधिता माँ तारा की दरबार में बेजुबान पशुओ को बलि दिए 
 जाने की परम्परा आज भी कायम है. बलि की कारुणिक व हृदयविदारक दृश्य  
 को श्रद्धालु भक्तजन अपनी नंगी आँखों से दीदार करते है. एक तरफ बेजुबान पशुओ
को बलि दी जाती है तो दूसरी तरफ मन्नते पूरी होने पर पुनः बलि चढाने की
 माँ भगवती तारा से कामना की जाती है. सवाल यह है कि जब गौ हत्या पाप है तो
 फिर भैसे की हत्या महापाप क्यों नहीं होती है ? जगतगुरु शंकराचार्य को शास्त्रार्थ में
 परास्थ करने वाली मंडन भारती की धरती को बेजुबान पशुओ की बलि प्रथा के विरोध
 में आखिर सांप क्यों सूंघ जाता है. हरेक साल उग्रतारा महोत्सव भी होती है,सेमिनार
 भी आयोजित की जाती है. लेकिन सेमिनार का विषय पशुओ की बलि प्रथा नहीं होती.
 जरा सोचे...जबकि महिषी प्रखंड क्षेत्र के मह्पुरा गांव स्थित पूर्वी कोशी तटबंध से
 सटे संत बाबा कारू खिरहरी स्थान में नवरात्रा के सप्तमी को पशुपालकों दुआरा दूध
 चढ़ाने की परम्परा है और उस दिन कोशी नदी की खलखल धारा दूध की नदियों की
 धार की तरह दिखने लगती है.     
 अब संस्कृत नहीं बोली जाती है:-
 जिस प्रदेश में पशु-पक्षी समेत गांव की पनभरनी भी संस्कृत में संवाद करती थी आज
 वहाँ शुद्ध-शुद्ध क्षेत्रीय भाषा बोलने वालों की भी कमी हो गयी है. ऐसी मान्यता है कि
 माँ तारा सहित अन्य भगवती स्थानों में पशुओ की बलि देने से श्रद्धालु-भक्तो की
 सभी मनोकामनाए पूरी हो जाती है. इसी प्रकार की पौराणिक मान्यताओ की वजह से
 पशु बलि प्रथा रुकने के बजाय और बढ़ती ही जा रही है.

बलि प्रदान को श्रद्धालु मानते हैं भगवती की कृपा:-
 बलि प्रदान के पीछे इक ओंर मान्यता है कि जिस श्रद्धालु का एक बार पशु बलि चढ़ 
 जाती है वे अपने-आप को मईया भगवती की कृपा मानते हैं. सफलतापूर्वक बलि प्रदान
 होने के लिए श्रद्धालु-भक्तजन सहमे-सहमे रहते हैं. जबकि सही मायने में उन बेजुबान
 पशुओ को सहमना चाहिए जिसकी बलि चढ़ती है.बलि से सहमे इन बेजुबान पशुओ
 की भाषा कौन समझता है. भक्ति के अन्धविश्वाश में डूबे श्रद्धालुओं के दुआरा पहले भैसे को पोखरा में नहलाया जाता है,फिर उसके बाद नए लाल वस्त्र को ओढ़ाकरभगवती के दरबार में परिक्रमा करवाया जाता है. परिक्रमा के दौरान भक्तजनों व बच्चों के दुआरा भैंसे के पीछे जय माँ तारा,जय माँ तारा की जयघोष से इलाका गुंजायमान रहता है. उसके बाद भगवती दरबार के समक्ष बलि स्थल पर लकड़ी के बने फांस में गर्दन डालकर पंडित तलवार से एक छह में भैंसे की सर को धर से अलग कर देता है.                          
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गजब की बात ये है कि भैंसे के बलि प्रदान के बाद जैसे ही सर धार से अलग हुआ की भारी संख्या में उमड़े श्रद्धालुओं के बीच भैंसे के रक्त की अपने ललाट पर तिलक लगाने लिये भगदड़ मच जाती है. परन्तु किसी को ये परवाह नहीं की देवी दुर्गा के दुआरा वध किया गया भैंसे की शक्ल में महिषासुर नहीं
 बल्कि वास्तव में बेजुबान भैसा ही है. जिसे अपने स्वार्थ के लिए वध किया गया है. जबकि देवी दुर्गा सृष्टि पर रहने वाले समस्त जीवों की रक्षा के लिए और देवी से
 बचने के लिए महिषासुर ने भैंसे का रूप धारण किया था. जिसको देवी दुर्गा ने अपने
 ही हाथों वध कर दी थी. लेकिन धर्म के आडम्बरदारो के दुआरा महिषासुर का प्रतीक
 बेजुबान भैंसे को मानकर आज भी बलि चढ़ाने की परम्परा को कायम किये हुए है और  इसे भगवती की आराधना मानते है.     

 परन्तु किसी को ये परवाह नहीं की देवी दुर्गा के दुआरा वध किया गया भैंसे की शक्ल में महिषासुर नहीं  नहीं की देवी दुर्गा के दुआरा वध किया गया भैंसे की शक्ल में महिषासुर नहीं  बल्कि वास्तव में बेजुबान भैसा ही है. जिसे अपने स्वार्थ के लिए वध किया गया  है.जबकि देवी दुर्गा सृष्टि पर रहने वाले समस्त जीवों की रक्षा के लिए और देवी से बचने के लिए महिषासुर ने भैंसे का रूप धारण किया था. जिसको देवी दुर्गा ने अपने ही हाथों वध कर दी थी. लेकिन धर्म के आडम्बरदारो के दुआरा महिषासुर का प्रतीक बेजुबान भैंसे को मानकर आज भी बलि चढ़ाने की परम्परा को कायम किये हुए है और इसे भगवती की आराधना मानते है.
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