Sunday, May 29, 2016

वट वृक्ष की परिक्रमा कर महिलाएं करती है पति के दीघायू की कामना


      पति के दीर्घायू का महापर्व वट सावित्री

वट वृक्ष की पूजा अर्चना करती महिलाएं

सहरसा/ हरेक साल ज्येष्ठ कृष्ण पक्ष में मनाये जाने वाली महिला व नव कन्याओं का महान वट सावित्री पर्व सामाजिकता के साथ-साथ पूर्णः पर्यावरणिक संदेश देती है। इस पर्व में महिलाएं व नव कन्या जहां वट वृक्ष की परिक्रमा कर अपने पति परमेष्वर के दीर्घायू होने के लिए वट वृक्ष में मोली बांध कर कामना करती है। वहीं व्रती वट के कोमल पत्तों को अपने जूड़ों में लगाकर पर्यावरणिक संदेश देती है।
यह पर्व शहरी व ग्रामीण क्षेत्रों में काफी हर्षोल्लास एवं निष्ठा के साथ मनाया जाता है। कहा जाता है कि सत्यवान व सावित्री के इस पतिव्रता पर्व की महिलायें खासकर हिन्दु धर्म की सुहागन महिलाओं में काफी महत्वपूर्ण स्थान रखता है। इस ख्याल से इस पर्व को महिला व नव कन्याओं के द्वारा आदि काल से ही मनाये जाने की परम्परा रही है। हालांकि वट वृक्ष की पूजा पतिव्रता धर्म के साथ-साथ कहीं न कहीं समाज को पर्यावरणिक संदेश भी देती है। वट सावित्री के इस पर्व में महिलाएं प्रतीकात्मक पति के रूप में वट वृक्ष को पंखा भी झेलती है। इस पर्व को लेकर लीची व केला काफी महंगे दरों में हरेक साल बिकती है।

Friday, May 27, 2016

”वर्ल्ड प्ले डे” पर खेले गये जीवन के पारंपरिक खेल




संजय सोनी/सहरसा
अब शहर से लेकर गांव तक के बच्चे व बच्चियां कबड्डी, गुड्डी कबड्डी व छू कित, कित, था.. से नहीं बल्कि टीवी व मोबाईल के गेम को ही अपने मनोरंजन का प्रमुख साधन बना लिया है। घोघो रानी-कितना पानी, रूमाल चोर, पटना से चिट्ठी आयी है कोई देखा भी है जैसे खेलों को जानते तक नहीं हैं। पारंपरिक खेल की जगह नन्हें-मुन्ने डारी मॉल,   छोटा भीम, निंजा हथोड़ी, सिनचैन, बालबीर को देखने के लिए पढाई छोड़कर भी टीवी के चैनलों से चिपके रहते हैं। जबकि कोसी, गंगा व महानंदा के क्षेत्रों में बाढ के दिनों में भी बच्चे पारंपरिक खेलों को खेलना नहीं भूलते थे। 2008 के कुसहा बाढ के दौरान जब जीवन सामान्य हुई तो बच्चों ने पहले खेलना ही शुरू किया। 
बच्चों का वर्ल्ड प्ले डे-
यूनाईटेड किंगडम का एक देश यानी ग्रेट ब्रिटेन के उत्तरी भाग वाला देष स्काटलैंड ने 1989 में बाल अधिकार के रूप में खेल अधिकार को अपनाया और संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन इसके एक प्रतिबद्ध समर्थक है। बच्चों के अन्य अधिकारों की तरह खेल का भी राईट है। हालांकि बच्चों के लिए जीवन भर खेल सीखने का महत्वपूर्ण आधार होता है। लेकिन मनोरंजन के आधुनिक व इलेक्ट्रानिक्स साधनों ने बच्चों को पारंपरिक खेलों से वंचित कर दिया है। जबकि खेलने की जिज्ञासा बच्चों को नये-नये उदाहरण भी देती है। खेल बच्चों को स्कूल में सफल होने व वयस्कों के रूप में स्वयं के निर्णय लेने में मददगार साबित होती है। शिक्षा के लिए खेल आवश्यक कौशल होती है। 1936 के बाद से ही दक्षिण अफ्रीका में कमजोर बच्चों के बीच खेल के प्रति जागरूकता पैदा करने के लिए 28 मई को वर्ल्ड प्ले डे के रूप में अपनाया। इसका प्रयोग पूर्व प्राथमिक व प्राथमिक विद्यालयों के माध्यम से दक्षिण अफ्रीका के बच्चों के बीच किया गया।
ट्रैफिकिंग सहित बालक व बालिकाओं के अधिकार के सवाल निरंतर कार्य करने वाली संस्था भूमिका बिहार आज भी कोशी, गंगा, व महानंदा में छोटे-छोटे बच्चों के बीच पारंपरिक खेलों का आयोजन कर वर्ल्ड प्ले डे के प्रति जागरूक कर रही है।
पानी व बच्चों के सवाल पर काम करने वाले युवा पर्यावरणविद् भगवानजी पाठक कहते हैं कि पारंपरिक खेलों से बच्चों को अलग कर दिये जाने की वजह से उनका मानसिक व शारीरिक विकास प्राकृतिक रूप से बाधित होता जा रहा है। उनका कहना है कि बच्चों को पढाई तक सिमित न कर प्राकृतिक रूप से बच्चों के मानसिक व शारीरिक विकास के लिए पारंपरिक खेलों के प्रति अभिभावकों द्वारा उत्प्रेरित करने की आवष्यकता है। ताकि मानसिक व शारीरिक विकास भी प्राकृतिक रूप से विकसित हो सके। बच्चों में खेल के प्रति जो रूझान होती थी वह अब नहीं रही। उन्होंने कहा कि जब से मोबाईल, टीवी व इंटरनेट का जमाना आ गया है तब से मनोरंजन का साधन खेल नहीं होता है। जो समाज व नई पीढ़ी के लिए अशुभ संकेत है। पहले अभिभावक भी खेल के लिए उत्प्रेरित किया करते थे। इस बदलते परिवेश में सब कुछ बदल गया है। बच्चों का अपना जीवन शैली भी छीना चला जा रहा है। पहले ग्रामीण ईलाकों में घोघो रानी, कितना पानी, जट-जटिन, खो-खो, रूमाल चोर, सूई-धागा, जलेबी, कुर्सी दौड़, कबड्डी, गुड्डी कबड्डी, छू कित, कित, था,..वाली बाल खुब खेला जाता था। लेकिन अब ऐसा नहीं होता है। रही क्रिकेट तो उसे भरी बच्चे टीवी पर ही देखना ज्यादा पसंद करते हैं। खेलने के लिए न मैदान है और न ही बच्चों के बीच जिज्ञासा। इसलिए वर्ल्ड प्ले डे इस पारंपरिक खेलों की हमें न केवल याद दिलाती है बल्कि समाज को सतर्क भी करती है।

 

Wednesday, May 18, 2016

समय से पहले आ सकती है बाढ, विभाग के फुल सकते हैं हाथ-पांव



समय से पहले आ सकती है बाढ, विभाग के फुल सकते हैं हाथ-पांव

  • -पहली खेप के रूप में कोसी बराज से 41 हजार क्यूसेक जल का निस्सरण

  • - बाढ संघर्षात्मक कार्यो की तैयारी में विभाग को जुटना पड़ेगा

  • - बाढ संघर्षात्मक कार्यो के लिए सामग्रियों का भंडारण शुरूः मुख्य अभियंता   


इस बार समय से पहले कोसी नदी की धारा बलखाने लगी है। ललपनियां भी गाद के साथ नदी में उतरने लगी है। पानी की पहली खेप के रूप में कोसी बराज से मंगलवार की सुबह 41 हजार क्यूसेक जल का निस्सरण इस साल के ललपनियां की गवाह बनी है। कहने का मतलब साफ है कि बाढ अवधि के करीब एक माह पूर्व ही जल संसाधन विभाग को बाढ संघर्षात्मक कार्यो की तैयारियों में जुट जाना पड़ेगा। हालांकि जल संसाधन विभाग बीरपुर के मुख्य अभियंता प्रकाश दास ने कहा कि विभाग की ओर से कटाव निरोधक कार्यों को पूरा कर लिया गया है और बाढ संघर्षात्मक कार्यों के लिए आवश्यक सामग्रियों का जगह-जगह भंडारण किया जा रहा है।
जल संसाधन विभाग बीरपुर के मुख्य अभियंता प्रकाश दास ने पूछने पर बताया कि नेपाल प्रभाग के 19 व भारतीय प्रभाग के 43 बिन्दुओं पर कटाव निरोधी कार्य कराये गये हैं। इन कार्यो में ही ग्राम सुरक्षा के कार्य शामिल हैं। कटाव निरोधी कार्यो में सिर्फ कुछ सड़कों का काम अब तक अधूरा है। जिसे तेजी से कराया जा रहा है।
पहाड़ी ईलाके में भारी बारिश होने व तेज गर्मी की वजह से बर्फ पिघलने के कारण नदी में अचानक पानी पहूंचने से विभाग को समय से पहले सतर्क कर दिया है। यही वजह है कि बाढ अवधि के कार्यक्रमों को समय से पहले विभाग को लागू करना पड़ सकता है। जबकि बाढ का निर्धारित अवधि 15 जून से 15 अक्टूबर तक रहती है। इसके साथ ही बाढ पूर्व कराये जा रहे कटाव निरोधक कार्यो की भी समय-सीमा 15 मई को ही समाप्त हो चुकी है। कोसी बराज के सभी फाटकों को बाढ पूर्व मरम्मती एवं संपोषण कार्य पूरा कर लेना होगा। अन्यथा जिस कदर समय से पहले नदी में पानी आ गयी है तो इस बीच विभाग को कटाव निरोधी कार्यो के अलावा कोसी बराज के सभी फाटकों को भी दुरूश्त कर लेना होगा, ताकि बराज के फाटकों का परिचालन सुचारू रूप से सुनिश्चित किया जा सके। 
विभाग को हरेक साल 15 जून से 15 अक्टूबर के बीच बाढ से हुई तटबंधों व स्परों की क्षति समेत नदी क्षेत्र के गांवों की सुरक्षा के कार्यों को कटाव निरोधी कार्य में ही पूरा किया जाता है।
वैसे विभाग की ओर से बाढ 2016 के पूर्व राज्य की विभिन्न नदियों में व्यापक पैमाने पर राज्य योजना के अंतर्गत बाढ सुरक्षात्मक कार्य को समय पर पूरा कराने एवं उसके निगरानी के लिए राज्य बाढ प्रक्षेत्रों को आठ भागों में विभक्त कर प्रत्येक क्षेत्र के लिए विशेष जांच दल का भी गठन किया गया है। गठित विशेष जांच दल का दायित्व होगा कि विभिन्न स्थलों पर कटाव निरोधक, निवृत रेखा निर्माण, ग्राम एवं शहर सुरक्षा, गैप क्लोजर, बांध का उंचीकरण एवं सुदृढीकरण तथा बाढ सुरक्षात्मक कार्यों का स्थल निरीक्षण एवं प्रगति की समीक्षा करना। साथ ही निर्धारित लक्ष्य के विरूद्ध कार्यों की प्रगति एवं बाढ सुरक्षात्मक सामग्रियों की आपूर्ति व भंडारण की स्थिति की समीक्षा करना। इसकी भी समय-सीमा पांच चरणों में तय थी। जिसमें चार चरण तो खत्म हो गये और अब पांचवा चरण 22 मई से 26 मई तक निरीक्षण करना बांकी रह गया है और 28 मई 2016 को फोटोग्राफी के साथ स्थलीय निरीक्षण का प्रतिवेदन मुख्यालय को समर्पित करना है। लेकिन अभी निरीक्षण के साथ-साथ रिपोर्ट भी समर्पित करने का समय शेष है और कोसी नदी की धारा समय से पहले उतावली हो गयी है। इसलिए विभाग अगर समय से पहले सतर्क नहीं हुआ तो आपदा की परिस्थिति में हाथ-पांव फुलना तय है।

वरदान की मैया कोसी बन गयी अभिशाप की जननी



  

-ललपनियां के जरीये हिमालय से आती है नदी क्षेत्र में पांक


  • - गम का मंजर लेकर आती है कोसी नदी की ललपनियां


कोसी व दियारा क्षेत्र की कृषि के लिए संजीवनी कहे जाने वाली पांक (खाद) का अभी माकूल वक्त है। हरेक साल इसी महीने में हिमालय से चलकर शिवालयों के रास्ते मृदा की औषद्यी पांक अब भी कोसी नदी में ललपनियां के साथ नीचे उतरती है। हालांकि हिमालय क्षेत्रों में वनों की अवैध कटाई व तटबंध निर्माण की वजह से अब पांक गाद में परिवर्तित हो गयी है। यही वजह है कि वरदान साबित होने वाली कोसी मैया अभिशाप की जननी बन गयी है। हिमालय की सबसे उंची चोटी माउंट एवरेस्ट व कंचनजंघा से सप्तकोशी के रास्ते नेपाल के चतरा स्थित बराह क्षेत्र में जमीन पर कदम रखने वाली कोशी नदी पहले अपनी धारा में जल के साथ नयी मिट्टी के अलावा पहाड़ों पर सालों भर सड़े-गले पेड़-पौधों व वनस्पतियों की पांक लाती थी। लेकिन अब पहाड़ों पर पेड़-पौधों की विरानगी ने सब कुछ उलट कर रख दिया।  
बाढ से आयी मिट्टी व पांक से बढती है खेतों की उर्वरा शक्ति
मृदा के लिए प्राकृतिक औषद्यी पांक के कारण ही कोशी नदी क्षेत्रों में बिना रसायनिक खाद डाले न केवल उन्नत खेती होती है बल्कि किसी भी क्षेत्र की खेती से दस गुना फसल उपज आसानी से मिलती है। यही कारण है कि कोशी दियारा क्षेत्र में आपराधिक तांडव व कोहराम किसी न किसी रूप में मचते रहती है।
अमूमन हरेक साल मई के प्रथम पखवाड़े से लेकर जून के प्रथम सप्ताह के बीच कोशी नदी में ललपनियां उतरती है। इस ललपनियां से कोशी नदी क्षेत्र में कहीं खुशी तो कहीं गम का माहौल कायम हो जाता है। खुशी इस बात की दियारा के बालू व चिलचिलाती धूप में अब पांव पैदल नहीं चलना पड़ेगा। किसी न किसी घाट से नाव पर सवाड़ होकर तटबंध पार कर ही लेंगे। पर गम इस बात की कि करीब पांच महीने तक किस रूप में बाढ का तांडव झेलना पड़ेगा यह कहना मुष्किल होता है। खैर, अब तो कोशी नदी के पूर्वी तटबंध के बलुआहा घाट से बलुआहा तक 2000 मीटर लंबे पुल का निर्माण हो गया है। बलुआहा घाट व गंडोल के बीच मुख्य सेतु सहित 3542 मीटर लंबी अन्य 12 अदद पुलों व सड़कों का गंडोल तक निर्माण हो जाने से हरेक साल लोगों का दहलने वाला कलेजा अब थम गया है।
ललपनियां से कोई जवान तो कोई हलकान 
कोशी व दियारा की कृषि व्यवस्था में बाढ के बाद की खेती से सोना जैसी फसल उपजाना अब भी बड़ा आसान है। कोशी की बाढ से आयी नयी मिट्टी व पांक खेतों की उर्वरा शक्ति को अब भी बढा दे रही है। जिसके कारण 8 से 10 मन प्रति कðा मक्के की उपज किसान प्राप्त कर लेते हैं। कोशी व दियारा की हजारों एकड़ जमीन पर कहीं अपराधी तो कहीं दबंगो का कब्जा होता है। ऐसे खेतों में न तो खाद डालना पड़ता है और ना ही पटवन करना पड़ता है। खेती से उपजी फसल मानों किसी ने वरदान में अनाजों की झोली भर दिया हो। छोटे व मझौले किसानों को भी इसका लाभ मिलता है। छोटे व मझौले किसान तो अपनी जमीन की खेती से ही खुशहाल रहते हैं। पर, दोहटवारों सहित बिहार सरकार व गैर मजरूआ जमीन पर कब्जा जमाने के लिए ही अपराधियों के बीच आपस में खूनी टकराहट तक होती है। कोशी की ललपनियां कितने किसानों को जवान तो कितनों को हलकान कर देती है। ललपनियां की लहलहाती खेती से ही दियारा की घरे बसती व उजड़ती भी है। इसी ललपनियां ने गरीबों व दलितों को नक्सल तक का तमगा दिया है। कितने को वंश विहिन कर दिया तो कितने के घर-आंगन खुशहाली से आज भी झूम रही है।
पानी चढने का भी होता है इंतजार
नदी के पानी से वंचित खेतिहर भूमि की उपज आज भी सामान्य से अधिक ही होती है। कोशी नदी का पानी अब भी दियारा क्षेत्र के धार से उपर जिन क्षेत्रों में नहीं पहूंचती है वहां उपज बढाने के लिए किसानों को रसायनिक खाद का भरपूर उपयोग करना पड़ता है। ऐसे क्षेत्रों के किसान बाढ आने के बाद पानी चढने का भी इंतजार करते हैं। ताकि उसके खेतों में भी नयी मिट्टी व पांकी का लाभ मिल सके। हिमालय के रास्ते जमीन पर कदम रखते ही आज भी कोशी नदी किसी के लिए अभिशाप तो किसी के लिए वरदान साबित हो रही है। उनमुक्त कोशी सबके लिए बराबर थी और तटबंध में कैद होने के बाद कोशी नदी की धारा खुशी कम और गम का मंजर अधिक दे जाती है।