सभागाछी में हरेक साल सजती है दहेज रहित दुल्हों का बाजार
सामाजिक व वैज्ञानिक कसौटी पर भी अन्तर्जातीय एवं समगौत्री विवाह में दोष
कर्नाट वंश की देन है मिथिला की सौराठ सभागाछी
संजय सोनी/सहरसा।योग्य वंशावली विवाह सुविधा प्रदान करने के लिए कर्नाट वंश में तिरहुत के शासक हरिसिंह देव के नेतृत्व में 1296 ई. से 1310 ई. के बीच मिथिला के कुल 14 विभिन्न स्थानों पर बाजार के रूप में ”विवाह बाजार“ स्थापित किया गया था। इस बाजार में सौराठ, खामागढी, परतापुर, शिवहर, गोविंदपुर, फतेपुर, सजहौल, सुखसैना, अखराही, हेमानगर, बलुआ, बरौली, समौल एवं सहसौल प्रमुख रूप से शामिल था। लेकिन कालांतर में सभी विवाह बाजार खत्म हो गये और एकमात्र बाजार मधुबनी जिले के सौराठ गांव अवस्थित सभागाछी में लगने वाली विवाह बाजार आज भी अपने गिरती सामाजिक व्यवस्था व परंपरा के बीच अस्तित्व के साथ कायम है। तत्कालीन विवाह प्रथा में वर व वधु पक्ष स्वयं वर-वधु की तलाश नहीं किया करते थे बल्कि घटकैती परंपरा के जरीये ही वर व वधु की तलाश कर विवाह दान को संभव बनाया जाता था। बदलते परिवेश में सब कुछ बदला, अगर न बदली तो सौराठ सभा गाछी के दुल्लाह बाजार की अपनी संस्कृति व परंपरा। उत्तरी बिहार के सौराठ, खामागढी, परतापुर, शिवहर, गोविंदपुर, फतेपुर, सजहौल, सुखसैना, अखराही, हेमानगर, बलुआ, बरौली, समौल एवं सहसौल जैसे प्रमुख गांवों में वंशावली को जानने वाले प्रख्यात संस्कृत महापंडितों के गांव के रूप में जाना जाता था।
बिहार के सांस्कृतिक राजधानी कहे जाने वाली शहर दरभंगा से सटे जिला मधुबनी मुख्यालय से महज छह किलो मीटर दूर सौराठ गांव के सभागाछी में हरेक साल ज्येष्ठ व आषाढ माह में दुल्हों का बाजार लगता है। दुल्हों के इस बाजार में कभी सभी प्रकार की छोटे-बड़े नौकरियों के साथ-साथ आईएएस व आईपीएस वरों की भी बाजार में चट्टी बिछती थी। लेकिन दहेज संस्कृति के बढते कुप्रभाव ने दहेज रहित इस सभागाछी वर तलाश परंपरा को भी डस लिया। मैथिल ब्राह्मणों की इस संस्कृति ने कर्ण कायस्थों को भी अपनी ओर आकर्षित किया। इस बाजार जन्मपत्री व राशि फल के आधार पर लड़के व लड़कियों की कुंडली मिलान की जाती है। राशि मिल जाने पर इस जोड़ों को पंजीकार अपनी पंजी में पंजीकृत कर शादी निश्चित कराने का महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। दरभंगा के प्रतापी राजा दरभंगा महाराजा के द्वारा 22 बीघा जमीन सौराठ सभागाछी को बतौर दान दिया गया था। लेकिन वर्तमान में सभागाछी के इस महत्वपूर्ण वैवाहिक सांस्कृतिक स्थल की विरासत को अतिक्रमणकारियों के द्वारा अतिक्रमित किया जा रहा है। कहा जाता है कि लग्न के समय में सौराठ सभागाछी में पहले हजारों की संख्यां में मिथिलंचल के विभिन्न क्षेत्रों से मैथिल ब्राह्मणों का जुटान होता था। लेकिन ये दिन अब लद गये।
पंजीकरण की प्रथा व महत्वः-
तिरहुत के शासक हरिसिंह देव के समय में अन्तर्जातीय व समगौत्री विवाह को सामाजिक एवं वैज्ञानिकों कारणों को लेकर निषेध मानते हुए 1310 ई. में विधिवत शुरू की गयी थी। इस संदर्भ में सौराठ गांव निवासी पंजीकार सह ललित नारायण मिश्र स्मारक महाविद्यालय बीरपुर में संस्कृत के प्राध्यापक शंकर कुमार मिश्र ने कहा कि अन्तर्जातीय व समगौत्र विवाह न केवल सुखमय दाम्पत्य जीवन के लिए घातक होता है बल्कि समाज के लिए भी वर्णशंकर की तरह होती है। वे बोले कि मनु स्मृति व आयुर्वेद की पुस्तक सरस संहिता में भी अन्तर्जातीय व समगौत्र विवाह के दोष पर विस्तार से चर्चा की गयी है। उन्होंने कहा कि मनोविज्ञान, जूलाॅजी, वनस्पति विज्ञान व बाॅयलाॅजी का 1802 से जानते हैं। लेकिन पंजीकरण की प्रथा 1310 में ही राजा हरिसिंह देव ने शुरू कर एक महान सामाजिक वैज्ञानिक व दर्शन का भी परिचय दिया है।
पंजीकरण का प्रारंभ पंडित गुणासर बाबू आज भी याद किये जाते हैं।
वंशावली का मौजूद है अभिलेखागारः-
सौराठ सभागाछी के वंशावली अभिलेखागार में पंजीकृत पं. घनश्याम मिश्र की वंशावली से ही ज्ञात होता है कि मिथिला के कालीदास कविवर विद्यापति किस वंशज के हैं और उनके पैतृक परिवारों की वंशावली आज भी पंजीकृत है। पं. पुरूषोत्तम ठाकुर कविवर विद्यापति के ही वंशज हैं। कविवर विद्यापति की सेवा व भक्ति से भाव विहृवल होकर साक्षात महादेव उगना बनकर उनके साथ होने की कई शास्त्रों में चर्चा है। रक्त संबंध जांच की प्रथा ही पंजीकारी प्रथा है। वंशावली से पूर्वजों के नाम, पता व ठिकाना सहित मूल व गौत्र का भी सही-सही जानकारी मिलती है। वंशावलियों को अक्षुण्ण बनाये रखने के लिए प्रतिष्ठित मैथिल ब्राह्मण परिवारों की अमूल्य धरोहर की समान है। प्रत्येक परिवारों के पूर्वजों की प्राचीनतम जानकारी अभिलेखागार में पंजीकृत पंजी से अब भी मिल जाती है। पंजीकार बिनोद झा ने अपने पंजीकार पिता सह भविष्यवेत्ता स्व. हरेकृष्ण झा की चर्चा करते हुए कहा कि वे कहते थे कि केवल सौराठ गांव में 42 गौत्र व 7 मूल के मैथिल ब्राह्मण परिवार हैं। खून के रिश्तो के घालमेल से पीढी वैज्ञानिक व सामाजिक रूप दूषित हो जाती है। वंशावली पंजी से मैथिल ब्राह्मणों के 10 पीढी तक की जानकारी मिलती है। सात पुश्त तक समगौत्री माना जाता है और वैसे रिश्तो में कोई संबंध की चर्चा तक नहीं होती है। पंजीकारों में स्व. विष्णुदत्त मिश्र, स्व. षिवदत्त मिश्र एवं उनके पुत्र शंकर कुमार मिश्र, सकरौनी निवासी मोहन मिश्र की अपनी ख्याति है। पंजीकार का कोई शुल्क नहीं होता है और लाभार्थी के स्वेच्छा पर ही शुल्क की राशि निर्भर करती है।
सीता स्वयंवर से मिलती है प्रेरणाः-
मिथिलांचल क्षेत्र राजा जनक की नगरी के रूप में भी प्रख्यात है और रामायण महाकाव्य में सीता के लिए आहूत स्वयंवर से भी इस प्रथा की ज्ञात होती है। यही वजह है कि मधुबनी के गांव सौराठ के सभागाछी में स्वयंवर की तरह ही दूल्हों का बाजार लगता है और वरों की प्रतिभा व विलक्षण को आधार मानकर ही दहेज रहित विवाह के लिए वधु पक्ष चयन करते हैं।
2016 में मिथिलांचल के सौराठ सभागाछी में 10 जुलाई से शुरू होगी दुल्हों का बाजार
मिथिलांचल के मैथिल ब्राह्मणों द्वारा पीढियों से संरक्षित परम्परा व वर-वधु चयन के लिए ऐतिहासिक सौराठ सभा स्थल पर दहेज रहित दुल्हों के बाजार के लिए सभी आवष्यक तैयारियां शुरू है। सौराठ सभा प्रवासी वर-वधु पक्ष के लोगों के लिए ठहरने व भोजन की भी व्यवस्था सौराठ सभा समिति की ओर से की जा रही है।इधर, अन्तर्राष्ट्रीय मैथिली सम्मेलन के सचिव इन्द्रमोहन झा ने बताया कि मिथिलांचल के पूर्वी क्षेत्र सुपौल, सहरसा, मधेपुरा, पूर्णिया, कटिहार के वर-वधु पक्ष के मैथिल ब्राह्मणों को मोबाईल संदेश भेजकर सभा में पहूंचने का आमंत्रण भेजा गया है। इसके आलावा आसपास के गांव पंडोल, डीहरोज, कल्याणपुर, सरिसपाही, जमसम, हाटी, बटुरी, मेघौल, गंगौली आदि गांवों के लोगों को भी सभा स्थल पर पहूंचने का आग्रह किया गया है। सौराठ सभा समिति के सचिव डाॅ. शेखर चन्द्र मिश्र ने कहा कि सभा स्थल पर प्रवासी वर-वधु प़क्ष के लोगों को किसी प्रकार की असुविधा न हो इसका पूरा ख्याल रखा जा रहा है। ताकि सौराठ सभागाछी के प्रति लोगों में खत्म हो रही आकर्षण को लौटाया जा सके।
सौराठ कैसे बना सभा की गाछी
मुगलकाल में अपने पतन के दिनों से उबड़ने के बाद मैथिल ब्राह्मणों ने मिथिलांचल के सौराठ स्थित एक गाछी में ही बैठक की परंपरा की शुरूआत किया। इस बैठक में ही अपने पतन व नये सिरे से उदय पर मैथिल ब्राह्मणों व विद्वानों ने आपस में न केवल बहस शुरू की बल्कि सामाजिक ताना-बाना पर भी शास्त्रार्थ किया करते थे। उस स्थल की निरंतरता को देखते हुए सभागाछी का नामाकरण कर दिया और आज सभागाछी देश व दुनियां में दूल्हों के बाजार के लिए प्रसिद्ध है।
क्या कहते हैं सौराठ वासीः-
मधुबनी के प्रगतिशील विचारक संजय झा कहते हैं कि मैथिल ब्राह्मणों सहित ब्राह्मण समाज के लिए सौराठ सभा गाछी एक धरोहर है जहां दहेज रहित विवाह की परंपरा रही है। लेकिन सामाजिक किृतियों की वजह से सभागाछी के महत्व में गिरावट आयी है। उन्होंने कहा कि इस धरोहर को बचाने के लिए सभा के समय निष्चित रूप से सभागाछी में सभी ब्राह्मणों को आना चाहिए।
तिरहुत में कर्नाट शासक का उदय व अंतः-
संपूर्ण मिथिलाचंचल की धरती पर सांस्कृतिक विरासत को बनाये रखने की दिशा में कर्नाट वंश के अंतिम शासक हरिसिंह देव का बड़ा ही सराहनीय योगदान रहा है। लेकिन बिहार व बंगाल पर गयासुद्दीन तुगलक के द्वारा 1324-25 ई. में आधिपत्य कर लिए जाने के बाद शासक हरिसिंह देव अपने को असहज मानने लगे। उस समय तिरहुत का शासक हरिसिंह देव ही थे। शासक हरिसिंह देव ने तुर्की सेना से हार मानकर छुपने के लिए नेपाल की तराई में भी शरण लिये। इस प्रकार उत्तरी व पूर्व मध्य बिहार से कर्नाट वंश का 1378 ई. में आधिपत्य समाप्त हो गया।
यह बताना गैर जरूरी है कि तिरहुत में कर्नाट राज्य का 1097 ई. से 1098 ई. तक में ही रामपाल के शासनकाल में उदय हो गया था। कर्नाट राज्य के संस्थापक नान्यदेव एक महान शासक थे। नान्यदेव का पुत्र गंगदेव भी एक योग्य शासक बना। नान्यदेव ने कर्नाट की राजधानी सिमरॉवगढ़ बनाया। कर्नाट शासकों के कालखंड को मिथिला का स्वर्ण युग भी कहा जाता है। मिथिला में वैन वार वंश के शासनकाल में ही स्थिरता व प्रगति आयी। नान्यदेव के साथ सेन वंश राजाओं से युद्ध होता रहता था। सेन वंश के संस्थापक सामंत सेन था। विजय सेन, बल्लाल्सेन, लक्ष्मण सेन आदि भी शासक बने। सेन वंश के शासकों ने बंगाल व बिहार पर शासन किया। विजय सेन शैव धर्मानुयायी थे। उन्होंने बंगाल के देवपाड़ा में एक झील का भी निर्माण करवाया। विजय सेन एक लेखक भी थे और वे ‘दान सागर’ व ‘अद्भुलत सागर’ दो ग्रन्थों की रचना भी की। सेन वंश का अंतिम शासक लक्ष्मण सेन रहा। हल्लायुद्ध इसका प्रसिद्ध मंत्री व न्यायाधीश था। गीत गोविन्द के रचयिता जयदेव भी लक्ष्मण सेन शासक के दरबारी कवि थे। लक्ष्मण सेन वैष्णव धर्मानुयायी थे। सेन राजाओं ने अपना साम्राज्य विस्तार के दौरान 1160 ई. में गया के शासक गोविन्दपाल से युद्ध किया। 1124 ई. में गहड़वाल शासक गोविन्द पाल ने मनेर तक अभियान चलाया।
जयचन्द्र ने 1175-75 ई. में पटना व 1183 ई. के मध्य गया को अपने राज्य में सम्मिलित कर लिया। कर्नाट वंश के शासक नरसिंह देव बंगाल के शासक से परेशान होकर तुर्की का सहयोग लिया। उस समय बख्तियार खिलजी भी बिहार आए और नरसिंह देव को धन-दौलत देकर न केवल संतुष्ट किया बल्कि नरसिंह देव के साम्राज्य को तिरहुत से दरभंगा क्षेत्र तक फैलाने में मदद किया। इसी दौरान कर्नाट वंश के शासक सामान्य रूप से दिल्ली सल्तनत के प्रांतपति नियुक्तक किये गये। गयासुद्दीन तुगलक ने 1324-25 ई. में बिहार व बंगाल पर आधिपत्य कर लिया। उस समय तिरहुत का शासक हरिसिंह देव था। शासक हरिसिंह देव ने तुर्की सेना से हार मानकर छुपने के लिए नेपाल की तराई में भी षरण लिये। इस प्रकार उत्तरी व पूर्व मध्य बिहार से कर्नाट वंश का 1378 ई. में आधिपत्य समाप्त हो गया।
जानकारी मे विस्तार की आवश्यकता है।सुगांव डायनेस्टी की चर्चा आवश्यक है।
ReplyDeleteजाट - जाटनी नृत्य व शिवहर के मन्दिर ये तीरहुत के सांस्कृतिक, धार्मिक व पोराणिक धरोहर है उनको बचाने के लिए भी प्रयास किया जाना चाहिए
ReplyDelete