Wednesday, July 6, 2016

कर्नाट वंश की देन है मिथिला की सौराठ सभागाछी


सभागाछी में हरेक साल सजती है दहेज रहित दुल्हों का बाजार 

सामाजिक व वैज्ञानिक कसौटी पर भी अन्तर्जातीय एवं समगौत्री विवाह में दोष

 

कर्नाट वंश की देन है मिथिला की सौराठ सभागाछी

संजय सोनी/सहरसा।
योग्य वंशावली विवाह सुविधा प्रदान करने के लिए कर्नाट वंश में तिरहुत के शासक हरिसिंह देव के नेतृत्व में 1296 ई. से 1310 ई. के बीच मिथिला के कुल 14 विभिन्न स्थानों पर बाजार के रूप में ”विवाह बाजार“ स्थापित किया गया था। इस बाजार में सौराठ, खामागढी, परतापुर, शिवहर, गोविंदपुर, फतेपुर, सजहौल, सुखसैना, अखराही, हेमानगर, बलुआ, बरौली, समौल एवं सहसौल प्रमुख रूप से शामिल था। लेकिन कालांतर में सभी विवाह बाजार खत्म हो गये और एकमात्र बाजार मधुबनी जिले के सौराठ गांव अवस्थित सभागाछी में लगने वाली विवाह बाजार आज भी अपने गिरती सामाजिक व्यवस्था व परंपरा के बीच अस्तित्व के साथ कायम है। तत्कालीन विवाह प्रथा में वर व वधु पक्ष स्वयं वर-वधु की तलाश नहीं किया करते थे बल्कि घटकैती परंपरा के जरीये ही वर व वधु की तलाश कर विवाह दान को संभव बनाया जाता था। बदलते परिवेश में सब कुछ बदला, अगर न बदली तो सौराठ सभा गाछी के दुल्लाह बाजार की अपनी संस्कृति व परंपरा। उत्तरी बिहार के सौराठ, खामागढी, परतापुर, शिवहर, गोविंदपुर, फतेपुर, सजहौल, सुखसैना, अखराही, हेमानगर, बलुआ, बरौली, समौल एवं सहसौल जैसे प्रमुख गांवों में वंशावली को जानने वाले प्रख्यात संस्कृत महापंडितों के गांव के रूप में जाना जाता था। 


बिहार के सांस्कृतिक राजधानी कहे जाने वाली शहर दरभंगा से सटे जिला मधुबनी मुख्यालय से महज छह किलो मीटर दूर सौराठ गांव के सभागाछी में हरेक साल ज्येष्ठ व आषाढ माह में दुल्हों का बाजार लगता है। दुल्हों के इस बाजार में कभी सभी प्रकार की छोटे-बड़े नौकरियों के साथ-साथ आईएएस व आईपीएस वरों की भी बाजार में चट्टी बिछती थी। लेकिन दहेज संस्कृति के बढते कुप्रभाव ने दहेज रहित इस सभागाछी वर तलाश परंपरा को भी डस लिया। मैथिल ब्राह्मणों की इस संस्कृति ने कर्ण कायस्थों को भी अपनी ओर आकर्षित किया। इस बाजार जन्मपत्री व राशि फल के आधार पर लड़के व लड़कियों की कुंडली मिलान की जाती है। राशि मिल जाने पर इस जोड़ों को पंजीकार अपनी पंजी में पंजीकृत कर शादी निश्चित कराने का महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। दरभंगा के प्रतापी राजा दरभंगा महाराजा के द्वारा 22 बीघा जमीन सौराठ सभागाछी को बतौर दान दिया गया था। लेकिन वर्तमान में सभागाछी के इस महत्वपूर्ण वैवाहिक सांस्कृतिक स्थल की विरासत को अतिक्रमणकारियों के द्वारा अतिक्रमित किया जा रहा है। कहा जाता है कि लग्न के समय में सौराठ सभागाछी में पहले हजारों की संख्यां में मिथिलंचल के विभिन्न क्षेत्रों से मैथिल ब्राह्मणों का जुटान होता था। लेकिन ये दिन अब लद गये।    
   
 
पंजीकरण की प्रथा व महत्वः-
तिरहुत के शासक हरिसिंह देव के समय में अन्तर्जातीय व समगौत्री विवाह को सामाजिक एवं वैज्ञानिकों कारणों को लेकर निषेध मानते हुए 1310 ई. में विधिवत शुरू की गयी थी। इस संदर्भ में सौराठ गांव निवासी पंजीकार सह ललित नारायण मिश्र स्मारक महाविद्यालय बीरपुर में संस्कृत के प्राध्यापक शंकर कुमार मिश्र ने कहा कि अन्तर्जातीय व समगौत्र विवाह न केवल सुखमय दाम्पत्य जीवन के लिए घातक होता है बल्कि समाज के लिए भी वर्णशंकर की तरह होती है। वे बोले कि मनु स्मृति व आयुर्वेद की पुस्तक सरस संहिता में भी अन्तर्जातीय व समगौत्र विवाह के दोष पर विस्तार से चर्चा की गयी है। उन्होंने कहा कि मनोविज्ञान, जूलाॅजी, वनस्पति विज्ञान व बाॅयलाॅजी का 1802 से जानते हैं। लेकिन पंजीकरण की प्रथा 1310 में ही राजा हरिसिंह देव ने शुरू कर एक महान सामाजिक वैज्ञानिक व दर्शन का भी परिचय दिया है।
पंजीकरण का प्रारंभ पंडित गुणासर बाबू आज भी याद किये जाते हैं। 

वंशावली का मौजूद है अभिलेखागारः-
सौराठ सभागाछी के वंशावली अभिलेखागार में पंजीकृत पं. घनश्याम मिश्र की वंशावली से ही ज्ञात होता है कि मिथिला के कालीदास कविवर विद्यापति किस वंशज के हैं और उनके पैतृक परिवारों की वंशावली आज भी पंजीकृत है। पं. पुरूषोत्तम ठाकुर कविवर विद्यापति के ही वंशज हैं। कविवर विद्यापति की सेवा व भक्ति से भाव विहृवल होकर साक्षात महादेव उगना बनकर उनके साथ होने की कई शास्त्रों  में चर्चा है। रक्त संबंध जांच की प्रथा ही पंजीकारी प्रथा है। वंशावली से पूर्वजों के नाम, पता व ठिकाना सहित मूल व गौत्र का भी सही-सही जानकारी मिलती है। वंशावलियों को अक्षुण्ण बनाये रखने के लिए प्रतिष्ठित मैथिल ब्राह्मण परिवारों की अमूल्य धरोहर की समान है।  प्रत्येक परिवारों के पूर्वजों की प्राचीनतम जानकारी अभिलेखागार में पंजीकृत पंजी से अब भी मिल जाती है। पंजीकार बिनोद झा ने अपने पंजीकार पिता सह भविष्यवेत्ता स्व. हरेकृष्ण झा की चर्चा करते हुए कहा कि वे कहते थे कि केवल सौराठ गांव में 42 गौत्र व 7 मूल के मैथिल ब्राह्मण परिवार हैं। खून के रिश्तो के घालमेल से पीढी वैज्ञानिक व सामाजिक रूप दूषित हो जाती है। वंशावली पंजी से मैथिल ब्राह्मणों के 10 पीढी तक की जानकारी मिलती है। सात पुश्त तक समगौत्री माना जाता है और वैसे रिश्तो में कोई संबंध की चर्चा तक नहीं होती है। पंजीकारों में स्व. विष्णुदत्त मिश्र, स्व. षिवदत्त मिश्र एवं उनके पुत्र शंकर कुमार मिश्र, सकरौनी निवासी मोहन मिश्र की अपनी ख्याति है। पंजीकार का कोई शुल्क नहीं होता है और लाभार्थी के स्वेच्छा पर ही शुल्क की राशि निर्भर करती है।
सीता स्वयंवर से मिलती है प्रेरणाः-
मिथिलांचल क्षेत्र राजा जनक की नगरी के रूप में भी प्रख्यात है और रामायण महाकाव्य में सीता के लिए आहूत स्वयंवर से भी इस प्रथा की ज्ञात होती है। यही वजह है कि मधुबनी के गांव सौराठ के सभागाछी में स्वयंवर की तरह ही दूल्हों का बाजार लगता है और वरों की प्रतिभा व विलक्षण को आधार मानकर ही दहेज रहित विवाह के लिए वधु पक्ष चयन करते हैं।  

2016 में मिथिलांचल के सौराठ सभागाछी में 10 जुलाई से शुरू होगी दुल्हों का बाजार   
मिथिलांचल के मैथिल ब्राह्मणों द्वारा पीढियों से संरक्षित परम्परा व वर-वधु चयन के लिए ऐतिहासिक सौराठ सभा स्थल पर दहेज रहित दुल्हों के बाजार के लिए सभी आवष्यक तैयारियां शुरू है। सौराठ सभा प्रवासी वर-वधु पक्ष के लोगों के लिए ठहरने व भोजन की भी व्यवस्था सौराठ सभा समिति की ओर से की जा रही है।इधर, अन्तर्राष्ट्रीय मैथिली सम्मेलन के सचिव इन्द्रमोहन झा ने बताया कि मिथिलांचल के पूर्वी क्षेत्र सुपौल, सहरसा, मधेपुरा, पूर्णिया, कटिहार के वर-वधु पक्ष के मैथिल ब्राह्मणों को मोबाईल संदेश भेजकर सभा में पहूंचने का आमंत्रण भेजा गया है। इसके आलावा आसपास के गांव पंडोल, डीहरोज, कल्याणपुर, सरिसपाही, जमसम, हाटी, बटुरी, मेघौल, गंगौली आदि गांवों के लोगों को भी सभा स्थल पर पहूंचने का आग्रह किया गया है। सौराठ सभा समिति के सचिव डाॅ. शेखर चन्द्र मिश्र ने कहा कि सभा स्थल पर प्रवासी वर-वधु प़क्ष के लोगों को किसी प्रकार की असुविधा न हो इसका पूरा ख्याल रखा जा रहा है। ताकि सौराठ सभागाछी के प्रति लोगों में खत्म हो रही आकर्षण को लौटाया जा सके। 
सौराठ कैसे बना सभा की गाछी
मुगलकाल में अपने पतन के दिनों से उबड़ने के बाद मैथिल ब्राह्मणों ने मिथिलांचल के सौराठ स्थित एक गाछी में ही बैठक की परंपरा की शुरूआत किया। इस बैठक में ही अपने पतन व नये सिरे से उदय पर मैथिल ब्राह्मणों व विद्वानों ने आपस में न केवल बहस शुरू की बल्कि सामाजिक ताना-बाना पर भी शास्त्रार्थ किया करते थे। उस स्थल की निरंतरता को देखते हुए सभागाछी का नामाकरण कर दिया और आज सभागाछी देश व दुनियां में दूल्हों के बाजार के लिए प्रसिद्ध है।  
क्या कहते हैं सौराठ वासीः-   
मधुबनी के प्रगतिशील विचारक संजय झा कहते हैं कि मैथिल ब्राह्मणों सहित ब्राह्मण समाज के लिए सौराठ सभा गाछी एक धरोहर है जहां दहेज रहित विवाह की परंपरा रही है। लेकिन सामाजिक किृतियों की वजह से सभागाछी के महत्व में गिरावट आयी है। उन्होंने कहा कि इस धरोहर को बचाने के लिए सभा के समय निष्चित रूप से सभागाछी में सभी ब्राह्मणों को आना चाहिए।


तिरहुत में कर्नाट शासक का उदय व अंतः-
संपूर्ण मिथिलाचंचल की धरती पर सांस्कृतिक विरासत को बनाये रखने की दिशा में कर्नाट वंश के अंतिम शासक हरिसिंह देव का बड़ा ही सराहनीय योगदान रहा है। लेकिन बिहार व बंगाल पर गयासुद्दीन तुगलक के द्वारा 1324-25 ई. में आधिपत्य कर लिए जाने के बाद शासक हरिसिंह देव अपने को असहज मानने लगे। उस समय तिरहुत का शासक हरिसिंह देव ही थे। शासक हरिसिंह देव ने तुर्की सेना से हार मानकर छुपने के लिए नेपाल की तराई में भी शरण लिये। इस प्रकार उत्तरी व पूर्व मध्य बिहार से कर्नाट वंश का 1378 ई. में आधिपत्य समाप्त हो गया।
यह बताना गैर जरूरी है कि तिरहुत में कर्नाट राज्य का 1097 ई. से 1098 ई. तक में ही रामपाल के शासनकाल में उदय हो गया था। कर्नाट राज्य के संस्थापक नान्यदेव एक महान शासक थे। नान्यदेव का पुत्र गंगदेव भी एक योग्य शासक बना। नान्यदेव ने कर्नाट की राजधानी सिमरॉवगढ़ बनाया। कर्नाट शासकों के कालखंड को मिथिला का स्वर्ण युग भी कहा जाता है। मिथिला में वैन वार वंश के शासनकाल में ही स्थिरता व प्रगति आयी। नान्यदेव के साथ सेन वंश राजाओं से युद्ध होता रहता था। सेन वंश के संस्थापक सामंत सेन था। विजय सेन, बल्लाल्सेन, लक्ष्मण सेन आदि भी शासक बने। सेन वंश के शासकों ने बंगाल व बिहार पर शासन किया। विजय सेन शैव धर्मानुयायी थे। उन्होंने बंगाल के देवपाड़ा में एक झील का भी निर्माण करवाया। विजय सेन एक लेखक भी थे और वे ‘दान सागर’ व ‘अद्भुलत सागर’ दो ग्रन्थों की रचना भी की। सेन वंश का अंतिम शासक लक्ष्मण सेन रहा। हल्लायुद्ध इसका प्रसिद्ध मंत्री व न्यायाधीश था। गीत गोविन्द के रचयिता जयदेव भी लक्ष्मण सेन शासक के दरबारी कवि थे। लक्ष्मण सेन वैष्णव धर्मानुयायी थे। सेन राजाओं ने अपना साम्राज्य विस्तार के दौरान 1160 ई. में गया के शासक गोविन्दपाल से युद्ध किया। 1124 ई. में गहड़वाल शासक गोविन्द पाल ने मनेर तक अभियान चलाया।
जयचन्द्र ने 1175-75 ई. में पटना व 1183 ई. के मध्य गया को अपने राज्य में सम्मिलित कर लिया। कर्नाट वंश के शासक नरसिंह देव बंगाल के शासक से परेशान होकर तुर्की का सहयोग लिया। उस समय बख्तियार खिलजी भी बिहार आए और नरसिंह देव को धन-दौलत देकर न केवल संतुष्ट किया बल्कि नरसिंह देव के साम्राज्य को तिरहुत से दरभंगा क्षेत्र तक फैलाने में मदद किया। इसी दौरान कर्नाट वंश के शासक सामान्य रूप से दिल्ली सल्तनत के प्रांतपति नियुक्तक किये गये। गयासुद्दीन तुगलक ने 1324-25 ई. में बिहार व बंगाल पर आधिपत्य कर लिया। उस समय तिरहुत का शासक हरिसिंह देव था। शासक हरिसिंह देव ने तुर्की सेना से हार मानकर छुपने के लिए नेपाल की तराई में भी षरण लिये। इस प्रकार उत्तरी व पूर्व मध्य बिहार से कर्नाट वंश का 1378 ई. में आधिपत्य समाप्त हो गया।

Thursday, June 9, 2016

नेपाल व भारतीय प्रभाग में बाढ़ पूर्व कटाव निरोधी कार्यों से मंत्री संतुष्ट




सूबे के जल संसाधन मंत्री नेपाल प्रभाग के पूर्वी बहोत्थान बांध का किया निरीक्षण


संजय सोनी/सहरसा
कोसी नदी के नेपाल प्रभाग में पड़ने वाले पूर्वी बहोत्थान बांध का जल संसाधन मंत्री राजीव रंजन उर्फ़ ललन प्रसाद सिंह ने अपने अमलों के साथ गुरूवार को निरीक्षण किया और कहा कि सहरसा से कोसी बराज व कोसी बराज तक से पुलटेगौरा तक नेपाल प्रभाग में पड़ने वाले सभी स्परो पर बाढ़ पूर्व हुए कटाव निरोधात्मक कार्य संतोषप्रद है। मंत्री इस दौरे में सबसे पहले बुधवार को हेलीकाप्टर से सहरसा पहुचे और सड़क मार्ग से पूर्वी कोसी तटबंध का निरीक्षण करते हुए बीरपुर पहुचे। बीरपुर एसा रात्रि विश्राम के बाद अन्य निर्धारित विभागीय कार्यक्रमों में हिस्सा लिए।
जल संसाधन मंत्री श्री सिंह सुपौल के दो दिवसीय दौरे के  दौरान गुरूवार को कोसी नदी के नेपाल प्रभाग में पड़ने वाले पूर्वी बांध का निरीक्षण किया और बाढ़ पूर्व कटाव निरोधात्मक कार्यो का भी जायजा लिया। मौके पर  विभाग के प्रधान सचिव अरुण सिंह, इंजिनियर इन चीफ इंदुभूषण कुमार व राजेश कुमार,  मुख्य अभियंता प्रकाश दास, अधीक्षण अभियंता दिनेश चौधरी, कार्यपालक अभियंता विमल कुमार, शशि कान्त सिन्हा,एसडीओ संजय कुमार आदि प्रमुख रूप से मौजूद थे। मंत्री का काफिला सबसे पहले पूर्वी बहोत्थान बांध के स्पर संख्या 26.88 किमी, ,27.10 किमी के बाद पुलटेगौरा के स्पर संख्या 11 का भी निरिक्षण किया। तटबंधों के   निरीक्षण के बाद वीरपुर कोसी अतिथिशाला में पत्रकारों से बातचीत करते हुए मंत्री श्री सिंह ने कहा कि कोसी नदी के पूर्वी बांध पूरी तरह सुरक्षित हैं। हमने सहरसा से कोसी बराज व कोसी बराज तक से पुलटेगौरा तक का निरीक्षण किया है। निरीक्षण के बाद नेपाल प्रभाग में पड़ने वाले सभी स्परो पर बाढ़ पूर्व कराये गए कटाव निरोधात्मक कार्यों के प्रति संतोष प्रकट किया। जबकि मंत्री ने सहरसा से सुपौल के बीच 7 बिन्दुओं को संवेदनशील बताते हुए सतत निगरानी का निर्देश दिया।
 मंत्री ने कहा कि 15 जून से सभी अभियंताओ को चौबीस घंटे और सातों दिन बांध पर रहना पड़ेगा। कोसी बराज के गेट के सम्बन्ध में पूछे गए सवाल के जवाब में जानकारी देते हुए मंत्री ने बताया कि बराज के गेट का संचालन पटना कंट्रोल द्वारा किया जा रहा है अब 56 फाटकों में से मात्र 2 फाटक की स्थिति ठीक करनी है। इस बाबत मेकेनिकल विभाग के कार्यपालक अभियंता को आज के आज ही वीरपुर बुलाया गया।
 पत्रकारों के प्रश्न स्पर संख्या 26.88  किमी व 27.10 किमी  पर हर साल लाखोकरोड़ो की राशि खर्च होने के वावजूद क्या कोई स्थायी समाधान नहीं निकल सकता है के के जवाब में मंत्री ने कहा कि यदि आपके पास कोई समाधान हो तो बताए। मंत्री श्री सिंह ने कहा कि कोसी की धारा लगातार अपनी दिशा बदलती रहती है और पानी कब कितना आ जाये ये कोई नहीं बता सकता है। फिलहाल सभी स्पर सुरक्षित हैं और काम भी अच्छा हुआ है।

Tuesday, June 7, 2016

पर्यटन मानचित्र से वंचित ऐतिहासिक माँ देवी वन दुर्गा हरदी


पर्यटन मानचित्र से वंचित ऐतिहासिक माँ देवी वन दुर्गा हरदी  

 
  • -पांडव स्थापित वन दुर्गा स्थान हरदी आज भी उपेक्षित

  • वीर लौरिक के आराधना का केंद्र रहा हरदी वन दुर्गा स्थान

  • माँ देवी वन दुर्गा स्थान में प्रधानमंत्री नेहरु के भी पड़े कदम   

सहरसा

धार्मिक स्थल व धरोहरों के लिए कोसी क्षेत्र की अपनी एक गौरवमयी इतिहास है। कोसी क्षेत्र के गर्भ में एक से एक देवी-देवता व मठ-मंदीरे तो हैं, लेकिन पर्यटन विभाग के पास ऐसे धरोहरों को संजोने व विकसित करने के लिए कोई कारगर योजना नहीं है। यही वजह है कि पांडवों के अज्ञातवाशकाल के दौरान कोसी प्रमंडल के सुपौल जिले के हरदी गांव में प्रतिष्ठापित देवी वन दुर्गा मंदिर आज भी उपेक्षा का दंश झेल रहा है। वैसे कहा जाता है कि राज्य व केन्द्र सरकार ने वर्ष 2005 में युनेस्को की मदद से इसके जीर्णोद्धार के लिए विस्तारित कार्य योजना बनाये जाने की चर्चा ईलाके के प्रबुद्धजन करते हैं। लेकिन वह कार्य योजन किस फाईल में गुम हो गयी यह भी गहन जांच का विषय है।
सबसे चौकाने वाली बात तो यह भी है की भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू भी अपने प्रथम कार्यकाल में ही माँ देवी वन दुर्गा की पूजा-अर्चना करने पहुचे थे। इसका ज़िक्र उनकी पुस्तक डिस्कवरी ऑफ इंडिया में भी न केवल वर्णित है बल्कि स्थल के महत्व की भी बखान है।

सुपौल जिला मुख्यालय महज़ 10 किलो मीटर दूर सुपौल-सिंहेश्वर मुख्य मार्ग अवस्थित ऐतिहासिक  हरदी वन दुर्गास्थान आम जनमानस में असीम आस्था व विश्वास का केंद्र के साथ-साथ शक्ति पीठ के रूप में विख्यात है। इस धार्मिक स्थल की मान्यता है कि पालवंशकाल में यह स्थल काफी ख्याति प्राप्त बाजारों में सुमार था। इसके गवाह केन्द्रीय रेफरेंस पुस्तकालय व वाचस्पति संग्रहालय में रखी महत्वपूर्ण ताम्रपत्र आज भी है। यहां हरेक साल कार्तिक पूर्णिमा के अवसर वीर लौरिक की जयंती एवं भव्य मेला आयोजन की परम्परा रही है । इस मेला का आयोजन किसके द्वारा और कब शुरू की गयी है इसकी भी जानकारी किसी के पास नही है।
मेला ओ वन दुर्गा स्थल के बारे में लोगों का कहना है कि पाण्डवों द्वारा अज्ञातवास के दौरान बिराटनगर जाने के वक्त विश्रामावधि काल में हरदी गांव में देवी वन दुर्गा को प्रतिष्ठापित की गयी थी। तब से लेकर अब तक इस स्थल पर मां की पूजा-अर्चणा के लिए प्रतिदिन भक्तों की भीड़ उमड़ती है ।

यह भी कहा जाता है कि 7 वीं शताब्दी के आस-पास बंगाल के राजा व पालवंश के संस्थापक गोपाल आर्य का यहां राजधानी एवं सबसे बड़ी सैनिक छावनी हुआ करता था। यह स्थल आज भी एक प्रसिद्ध शक्ति पीठ के रूप में देश-विदेश में भी चर्चित है। जनश्रुति है कि मां  देवी वनदुर्गा की परम उपासक महान योद्धा वीर लौरिक मन्यार उत्तर प्रदेश के गौरा गांव से पांचवीं शताब्दी में पूजा-अर्चणा करने के लिए हरदी गांव आगमन हुआ था। यहां के राजा महबैर  अपने प्रजा के साथ अत्याचार व जुल्म किया करते थे।  राजा महबैर  के आतंक से निजात दिलाने के  फैसले के साथ ही वीर लौरिक मन्यार यहीं के होकर रह गये और फिर कभी वापस लौट कर अपने गांव गौरा नहीं गये। कहते हैं कि राजा महिचन्द साह जिनका साक्ष्य आज भी यहां महिचंदा गढ़ी व महिचंदा गांव के नाम से प्रसिद्ध है। राजा महिचन्द साह ने सेनापति बेंगठा चमार, बारूदी चौकीदार, सजल धोबी और सांभर को साथ लेकर हरदी के राजा महबैर को न केवल पराजित किया बल्कि अपना साम्राज्य स्थापित किया और  एक कुशल प्रजा पालक राजा के रूप में विख्यात हुए। इतना ही नहीं हरदी स्थान से 2 किमी पूरब रामनगर सीमा क्षेत्र स्थित वीर लौरिक के नाम से 15 डिसमील जमीन आज भी दस्तावेज में दर्ज है, जिसे लौरिकडीह के नाम से जाना जाता है। 
सनद हो कि आज भी इस स्थल पर फकत पांच फीट जमीन की खुदाई करने पर कई महत्वपूर्ण अवशेषों की प्राप्ति होती है।  इस स्थल को देखने व पूजा-अर्चना करने देश-विदेश से पर्यटकों का आना-जाना लगा रहता है।












Sunday, May 29, 2016

वट वृक्ष की परिक्रमा कर महिलाएं करती है पति के दीघायू की कामना


      पति के दीर्घायू का महापर्व वट सावित्री

वट वृक्ष की पूजा अर्चना करती महिलाएं

सहरसा/ हरेक साल ज्येष्ठ कृष्ण पक्ष में मनाये जाने वाली महिला व नव कन्याओं का महान वट सावित्री पर्व सामाजिकता के साथ-साथ पूर्णः पर्यावरणिक संदेश देती है। इस पर्व में महिलाएं व नव कन्या जहां वट वृक्ष की परिक्रमा कर अपने पति परमेष्वर के दीर्घायू होने के लिए वट वृक्ष में मोली बांध कर कामना करती है। वहीं व्रती वट के कोमल पत्तों को अपने जूड़ों में लगाकर पर्यावरणिक संदेश देती है।
यह पर्व शहरी व ग्रामीण क्षेत्रों में काफी हर्षोल्लास एवं निष्ठा के साथ मनाया जाता है। कहा जाता है कि सत्यवान व सावित्री के इस पतिव्रता पर्व की महिलायें खासकर हिन्दु धर्म की सुहागन महिलाओं में काफी महत्वपूर्ण स्थान रखता है। इस ख्याल से इस पर्व को महिला व नव कन्याओं के द्वारा आदि काल से ही मनाये जाने की परम्परा रही है। हालांकि वट वृक्ष की पूजा पतिव्रता धर्म के साथ-साथ कहीं न कहीं समाज को पर्यावरणिक संदेश भी देती है। वट सावित्री के इस पर्व में महिलाएं प्रतीकात्मक पति के रूप में वट वृक्ष को पंखा भी झेलती है। इस पर्व को लेकर लीची व केला काफी महंगे दरों में हरेक साल बिकती है।

Friday, May 27, 2016

”वर्ल्ड प्ले डे” पर खेले गये जीवन के पारंपरिक खेल




संजय सोनी/सहरसा
अब शहर से लेकर गांव तक के बच्चे व बच्चियां कबड्डी, गुड्डी कबड्डी व छू कित, कित, था.. से नहीं बल्कि टीवी व मोबाईल के गेम को ही अपने मनोरंजन का प्रमुख साधन बना लिया है। घोघो रानी-कितना पानी, रूमाल चोर, पटना से चिट्ठी आयी है कोई देखा भी है जैसे खेलों को जानते तक नहीं हैं। पारंपरिक खेल की जगह नन्हें-मुन्ने डारी मॉल,   छोटा भीम, निंजा हथोड़ी, सिनचैन, बालबीर को देखने के लिए पढाई छोड़कर भी टीवी के चैनलों से चिपके रहते हैं। जबकि कोसी, गंगा व महानंदा के क्षेत्रों में बाढ के दिनों में भी बच्चे पारंपरिक खेलों को खेलना नहीं भूलते थे। 2008 के कुसहा बाढ के दौरान जब जीवन सामान्य हुई तो बच्चों ने पहले खेलना ही शुरू किया। 
बच्चों का वर्ल्ड प्ले डे-
यूनाईटेड किंगडम का एक देश यानी ग्रेट ब्रिटेन के उत्तरी भाग वाला देष स्काटलैंड ने 1989 में बाल अधिकार के रूप में खेल अधिकार को अपनाया और संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन इसके एक प्रतिबद्ध समर्थक है। बच्चों के अन्य अधिकारों की तरह खेल का भी राईट है। हालांकि बच्चों के लिए जीवन भर खेल सीखने का महत्वपूर्ण आधार होता है। लेकिन मनोरंजन के आधुनिक व इलेक्ट्रानिक्स साधनों ने बच्चों को पारंपरिक खेलों से वंचित कर दिया है। जबकि खेलने की जिज्ञासा बच्चों को नये-नये उदाहरण भी देती है। खेल बच्चों को स्कूल में सफल होने व वयस्कों के रूप में स्वयं के निर्णय लेने में मददगार साबित होती है। शिक्षा के लिए खेल आवश्यक कौशल होती है। 1936 के बाद से ही दक्षिण अफ्रीका में कमजोर बच्चों के बीच खेल के प्रति जागरूकता पैदा करने के लिए 28 मई को वर्ल्ड प्ले डे के रूप में अपनाया। इसका प्रयोग पूर्व प्राथमिक व प्राथमिक विद्यालयों के माध्यम से दक्षिण अफ्रीका के बच्चों के बीच किया गया।
ट्रैफिकिंग सहित बालक व बालिकाओं के अधिकार के सवाल निरंतर कार्य करने वाली संस्था भूमिका बिहार आज भी कोशी, गंगा, व महानंदा में छोटे-छोटे बच्चों के बीच पारंपरिक खेलों का आयोजन कर वर्ल्ड प्ले डे के प्रति जागरूक कर रही है।
पानी व बच्चों के सवाल पर काम करने वाले युवा पर्यावरणविद् भगवानजी पाठक कहते हैं कि पारंपरिक खेलों से बच्चों को अलग कर दिये जाने की वजह से उनका मानसिक व शारीरिक विकास प्राकृतिक रूप से बाधित होता जा रहा है। उनका कहना है कि बच्चों को पढाई तक सिमित न कर प्राकृतिक रूप से बच्चों के मानसिक व शारीरिक विकास के लिए पारंपरिक खेलों के प्रति अभिभावकों द्वारा उत्प्रेरित करने की आवष्यकता है। ताकि मानसिक व शारीरिक विकास भी प्राकृतिक रूप से विकसित हो सके। बच्चों में खेल के प्रति जो रूझान होती थी वह अब नहीं रही। उन्होंने कहा कि जब से मोबाईल, टीवी व इंटरनेट का जमाना आ गया है तब से मनोरंजन का साधन खेल नहीं होता है। जो समाज व नई पीढ़ी के लिए अशुभ संकेत है। पहले अभिभावक भी खेल के लिए उत्प्रेरित किया करते थे। इस बदलते परिवेश में सब कुछ बदल गया है। बच्चों का अपना जीवन शैली भी छीना चला जा रहा है। पहले ग्रामीण ईलाकों में घोघो रानी, कितना पानी, जट-जटिन, खो-खो, रूमाल चोर, सूई-धागा, जलेबी, कुर्सी दौड़, कबड्डी, गुड्डी कबड्डी, छू कित, कित, था,..वाली बाल खुब खेला जाता था। लेकिन अब ऐसा नहीं होता है। रही क्रिकेट तो उसे भरी बच्चे टीवी पर ही देखना ज्यादा पसंद करते हैं। खेलने के लिए न मैदान है और न ही बच्चों के बीच जिज्ञासा। इसलिए वर्ल्ड प्ले डे इस पारंपरिक खेलों की हमें न केवल याद दिलाती है बल्कि समाज को सतर्क भी करती है।

 

Wednesday, May 18, 2016

समय से पहले आ सकती है बाढ, विभाग के फुल सकते हैं हाथ-पांव



समय से पहले आ सकती है बाढ, विभाग के फुल सकते हैं हाथ-पांव

  • -पहली खेप के रूप में कोसी बराज से 41 हजार क्यूसेक जल का निस्सरण

  • - बाढ संघर्षात्मक कार्यो की तैयारी में विभाग को जुटना पड़ेगा

  • - बाढ संघर्षात्मक कार्यो के लिए सामग्रियों का भंडारण शुरूः मुख्य अभियंता   


इस बार समय से पहले कोसी नदी की धारा बलखाने लगी है। ललपनियां भी गाद के साथ नदी में उतरने लगी है। पानी की पहली खेप के रूप में कोसी बराज से मंगलवार की सुबह 41 हजार क्यूसेक जल का निस्सरण इस साल के ललपनियां की गवाह बनी है। कहने का मतलब साफ है कि बाढ अवधि के करीब एक माह पूर्व ही जल संसाधन विभाग को बाढ संघर्षात्मक कार्यो की तैयारियों में जुट जाना पड़ेगा। हालांकि जल संसाधन विभाग बीरपुर के मुख्य अभियंता प्रकाश दास ने कहा कि विभाग की ओर से कटाव निरोधक कार्यों को पूरा कर लिया गया है और बाढ संघर्षात्मक कार्यों के लिए आवश्यक सामग्रियों का जगह-जगह भंडारण किया जा रहा है।
जल संसाधन विभाग बीरपुर के मुख्य अभियंता प्रकाश दास ने पूछने पर बताया कि नेपाल प्रभाग के 19 व भारतीय प्रभाग के 43 बिन्दुओं पर कटाव निरोधी कार्य कराये गये हैं। इन कार्यो में ही ग्राम सुरक्षा के कार्य शामिल हैं। कटाव निरोधी कार्यो में सिर्फ कुछ सड़कों का काम अब तक अधूरा है। जिसे तेजी से कराया जा रहा है।
पहाड़ी ईलाके में भारी बारिश होने व तेज गर्मी की वजह से बर्फ पिघलने के कारण नदी में अचानक पानी पहूंचने से विभाग को समय से पहले सतर्क कर दिया है। यही वजह है कि बाढ अवधि के कार्यक्रमों को समय से पहले विभाग को लागू करना पड़ सकता है। जबकि बाढ का निर्धारित अवधि 15 जून से 15 अक्टूबर तक रहती है। इसके साथ ही बाढ पूर्व कराये जा रहे कटाव निरोधक कार्यो की भी समय-सीमा 15 मई को ही समाप्त हो चुकी है। कोसी बराज के सभी फाटकों को बाढ पूर्व मरम्मती एवं संपोषण कार्य पूरा कर लेना होगा। अन्यथा जिस कदर समय से पहले नदी में पानी आ गयी है तो इस बीच विभाग को कटाव निरोधी कार्यो के अलावा कोसी बराज के सभी फाटकों को भी दुरूश्त कर लेना होगा, ताकि बराज के फाटकों का परिचालन सुचारू रूप से सुनिश्चित किया जा सके। 
विभाग को हरेक साल 15 जून से 15 अक्टूबर के बीच बाढ से हुई तटबंधों व स्परों की क्षति समेत नदी क्षेत्र के गांवों की सुरक्षा के कार्यों को कटाव निरोधी कार्य में ही पूरा किया जाता है।
वैसे विभाग की ओर से बाढ 2016 के पूर्व राज्य की विभिन्न नदियों में व्यापक पैमाने पर राज्य योजना के अंतर्गत बाढ सुरक्षात्मक कार्य को समय पर पूरा कराने एवं उसके निगरानी के लिए राज्य बाढ प्रक्षेत्रों को आठ भागों में विभक्त कर प्रत्येक क्षेत्र के लिए विशेष जांच दल का भी गठन किया गया है। गठित विशेष जांच दल का दायित्व होगा कि विभिन्न स्थलों पर कटाव निरोधक, निवृत रेखा निर्माण, ग्राम एवं शहर सुरक्षा, गैप क्लोजर, बांध का उंचीकरण एवं सुदृढीकरण तथा बाढ सुरक्षात्मक कार्यों का स्थल निरीक्षण एवं प्रगति की समीक्षा करना। साथ ही निर्धारित लक्ष्य के विरूद्ध कार्यों की प्रगति एवं बाढ सुरक्षात्मक सामग्रियों की आपूर्ति व भंडारण की स्थिति की समीक्षा करना। इसकी भी समय-सीमा पांच चरणों में तय थी। जिसमें चार चरण तो खत्म हो गये और अब पांचवा चरण 22 मई से 26 मई तक निरीक्षण करना बांकी रह गया है और 28 मई 2016 को फोटोग्राफी के साथ स्थलीय निरीक्षण का प्रतिवेदन मुख्यालय को समर्पित करना है। लेकिन अभी निरीक्षण के साथ-साथ रिपोर्ट भी समर्पित करने का समय शेष है और कोसी नदी की धारा समय से पहले उतावली हो गयी है। इसलिए विभाग अगर समय से पहले सतर्क नहीं हुआ तो आपदा की परिस्थिति में हाथ-पांव फुलना तय है।