Wednesday, July 6, 2011

तवायफ यानि मुजरा संस्कृति की जाने दर्द

मुजरा गाकर अब कोठा नहीं बनाया जा सकता       
        


              
अब न कोठा है और न कोठे वाली. आर्थिक विपन्नता व अशिक्षा ने मुजरे की स्वच्छ परम्परा को देह के गणित में उलझा कर रख दिया है. जब तवायफ मंडी की तवायफों को शास्त्रीय संगीत ,ठुमरी ,गीत , गजल नहीं आती हो तो जीने के लिए देह बेचना हीं पड़ेगा. भले हीं वह अश्लील गानों के सहारे हो या सीधे हम बिस्तर होकर. आज हर तवायफ मंडी की कमोवेश यही एक कोड़ा सच है कि देह बेचकर हीं कोठा बनाया जा सकता.
-:तवायफी से ज्यादा पैसा है देह धंधा में:-
तवायफी में अब इतना पैसा नहीं बच पाता कि ये कोठा बना सके.देह धंधा में फंसी युवतियां भी बाहर निकलना चाहती है. नतीजा चकला मालिकों के चंगुल से निकलना इनके बूते की बात नहीं रह गई है. लाचार,बेवश अबलाओं को कोई बेटी तो कोई नतनी या कोई पोती बनाकर गैरों से जिश्म नोचवाने का धंधा करवाता है.अब तवायफ मंडी में तबले की थाप और घूंघरूओं की खनक नहीं सुनाई देती, बस सुनाई देती है तो उन बेवश, लाचार, अबलाओं की आह,करवाहट. जिसे न जाने चौबीस घंटों में कितने बार देह को नोचवाना पड़ता हो पैसों की खातिर. फिर भी सुख -चैन से जीवन नहीं जी पाती है मंडी की वेश्याएं. 
कोसी व पूर्णिया प्रमंडल में भी तवायफ मंडी है. लेकिन गुजरे जमाने ने भी इस मंडी के तवायफों को जीने के लिए जिश्म बेचने को मजबूर कर दिया है. अब इन मंडियों के कोठे पर मुजरे की नहीं जिश्म की नुमाईश होती है. लेकिन फिर भी इक्के-दुक्के तवायफ आज ी मुजरा संस्कृति को अक्षुण्ण बनाए रखे हुए है. इन मंडियों की एक चर्चित नर्तकी मीरा आज भी  घुंघरू के सहारे अपना और अपने परिवार का भरण-पोषण करती है. मीरा कहती है कि घुंघरू से जिस दिन मैं अलग हुई उस दिन मरना बेहतर समझूंगी.
-:बाहर की बेटियों से करवायी जाती है अक्सर धंधा:-
इस तवायफ मंडी में भी अब बाहर से बहला-फूसला कर या फर्जी ब्याह कर लायी गयी यूवतियों से देह व्यापार का धंधा बेधड़क करवाया जा रहा है.नाम न छापने के शर्त पर धंधे में शामिल एक लड़की कहती है कि भूख से मर जाने से बेहतर है एड्स से मर जाना.मुर्दो की तरह लेट जाती हूँ ,डोरी सरकाती हॅू बस इतना भर जानती हूँ. देह की गणित में उलझी और चकला मालिकों से त्रस्त युवतियॉं कहती है कि कहने को तो बहुत कुछ है पर किससे किस लिए कहूँं. अपनी दर्द सुनाने से क्या फायदा. मुझे भी लड़की और औरत की तरह जीने की तमन्नाऐं थी. परन्तु ये तमन्नाऐं अब खत्म हो चुकी है. अब हर रोज जीती हूँ और मरती हूँ.
-:सोने की जंजीर करम फुटने की निशानी:- 
वे कहती है कि ये गले में सोने की जंजीर किसी प्यार की निसानी नहीं बल्कि मेरी किस्मत फूटने की निशानी है. इस जंजीर को जब-जब देखती हूँ तो मुझे अपनी फूटी किस्मत का वह दिन याद आ जाती है जब मेरी कथित मॉं ने मुझे एक अनजान अधेर मर्द के पास धकेल कर कमरे के अंदर कर दी और मेरे लाख गिरगिराने व आरजू करने पर भी उसने नहीं माना और अपना हवस पूरा किया.
उसने कही मानो वह रात मेरी जिन्दगी की सबसे काली रात थी और उस दिन से मैं रंडी बन गई जो आज तक हूँ. घर बसाने के सवाल पर कहती है कि मैं भी घर बसाना चाहती हूँ पर प्रश्न उठता है आखिर किसके साथ. यहॉं हर कोई आने वाला लम्बी-चौड़ी चिकनी-चुपड़ी बातें तो करता है परन्तु जीवन-साथ बनाने से कतराता है. ऐसा एक पागल दिवाना अवश्य मिला जो समाज की तमाम बाधाओं को झेलने के लिए तैयार है,लेकिन मैं उसके जीवन को बिगाड़ना नहीं चाहती क्यों कि रंडी मंडी में हीं अच्छी लगती है घर में नहीं.
-:अपराधी व पुलिस दोनों करते हैं प्रताडि़त:-
इस तवायफ मंडी की तवायफों एवं वेयाओं को अपराधी व पूलिस दोनों के द्वारा प्रताडि़त किया जाता है. अपराधी अपना हवश पूरा करना चाहता है तो पुलिस अपराधी को संरक्षण देने के नाम पर जब चाहे रात-दिन तलाशी कर प्रताडि़त करती है. पुलिस के द्वारा किये गये कार्रवाई को यहॉं के लोग सही मानते हैं, लेकिन छापेमारी के नाम पर नाच गाना से जुड़ी महिलाओं एवं उनके बच्चों को जो परेशान करती है. उससे इसके जीवन यापन पर फर्क पड़ता है.    
 
           






29 अगस्त कांति में कोसी के बलिदानियो की गाथा

अगस्त कांति में कोसी के बलिदानियो की गाथा 


                                 जरा याद करो कुरबानी
अंग्रेजों भारत छोड़ाे आंदोलन में कोसी क्षेत्र के महानायकों की कुर्बानी को नजरअंदाज कर आजादी की कल्पना करना बेमानी हीं कहा जा सकता है. अगस्त क्रांति में कोसी के जवानों ने पीठ में नहीं बल्कि सीने में गोली खाकर बलूची सेना को खदेड़ने का काम किया था.इन अमर शहीद जवानों की दास्तान सुनकर आज भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं. लेकिन विडंबना यह है कि जिस कोख से और जिस वंश में ये अमर  शहीद   पैदा लिए आज उसका हाल जानने वाला तक कोई नहीं है. अमर  शहीद   के परिजन आज सिर्फ तंगहीन हीं नहीं है ये समाज के मुख्य धारा से बिल्कुल अलग-थलग पड़ चुके हैं. इन अमर शहीदों की स्मृति में सहरसा के तत्कालीन विधायक संजीव कुमार झा ने चांदनी चौक पर स्मारक निर्माण करवाकर सम्मान जरूर किया है. लेकिन जिला प्रशासन व सरकार की उपेक्षा आज भी बरकरार है.
  -:कोसी की शहादत को कम नहीं आंका जा सकता:-
 1942 भारत छोड़ाे आंदोलन में कोसी की शहादत को कम आंका नहीं जा सकता है. कोसी में 29 अगस्त की क्रांति की लौ ने पुरी उत्तरी बिहार को उÌेलित कर दिया था और इस अगस्त क्रांति के कोसी के महानायक धीरो राय-एकाढ,हीरा कांत झा-बनगॉंव, पुलकित कामत-बनगॉंव,भोला ठाकुर-चैनपुर,काले’वर मंडल-बलहा,केदारनाथ तिवारी-नरियार,चुल्हाय यादव-मधेपुरा,बाजा साह की याद में एक अदद स्मारक व संग्राहलय भी क्षेत्रीय जनप्रतिनि-िध सहित सरकार व जिला प्रशासन ने बनवाना मुनासिब नहीं समझा. कोसी के इन महानायकों ने अंग्रेज व बलूची सिपाहियों को पुरातन हथियार ढेलौरी, लाठी, भाला, गरासा, फरसा, तलवार एवं मात्र दस-पन्द्रह नाल बंदूकों के दम पर हीं खदेड़ देने वाले इन शहीदो को 15 एवं 29 अगस्त ऐसे मौके पर भी शायद ही नमन किये जाते हैं.
-:स्वतंत्रता आंदोलन का केन्द्र था सहरसा:-
सहरसा जिला 1942 के स्वतंत्रता आंदोलन का एक केन्द्र था और इस क्षेत्र में आंदोलनकारियों ने करीब दो महीने तक अंग्रेजी शासन-सत्ता को मिटा कर अपना शासन कायम कर लिया था. बाद में अंग्रेजी सैनिक दस्ता सहरसा में उतारा गया. अंग्रेजों के इसी सैनिक दस्ता के साथ कोसी के महानायकों धीरो राय,चुल्हाय यादव,हीराकांत झा,पुलकित कामत, भोला ठाकुर, काले’वर मंडल, केदारनाथ तिवारी के नेतृत्व में हजारों युवक सहरसा में एकत्रित हो गये और सहरसा रेलवे स्टेशन के समीप हीं दोनों ओर से जवाबी कार्रवाई में अपने प्राणों की आहुति देकर अंग्रेज व बलूची सिपाहियों को लोहे की चना-चबाने को मजबुर कर दिया.
-:क्रांतिकारियों का योगदान:-  
अगस्त क्रांति के इन महानायकों के साथ हजारों की भीड़ में गणेश झा,बलभद्र झा , रमेश झा , महादेव मंडल, नुनू लाल मंडल, शोभा कांत झा मिश्र, छेदी झा द्विजवर, रामनारायण खॉं, बुच्ची झा,अवध नारायण खॉं, मौजे लाल खॉं, रमानंद झा आदि क्रांतिकारियों का योगदान कोसी के इतिहास के लिए गवाह है.
   


    




आदि दिवारी विषहरा दरबार


             मंत्र सिद्धी के लिए विख्यात है 
       आदि दिवारी विषहरा दरबार  

  •    नेपाल व पश्चिम बंगाल से दिवारी पहुचते है मंत्र साधक  
  •   ग्रामीण महिलाओं की उमड़ती है भीड़







                           आदि दिवारी स्थान   


    पौराणिक कैलदह नदी तट पर अवस्थित माँ विषहरी भगवती दिवारी मंदिर में श्रावण पूर्णिमा (रक्षा-बंधन) को सिद्धी पाने के लिए नेपाल, पश्चिम बंगाल,उड़ीसा सहित  बिहार के कई क्षेत्रों से मंत्र साधक सिद्धी पाने के लिए मैया के दरबार में हाजिर होते हैं.मंत्र साधकों एवम् मैया पूजन के लिए भक्तिन महिला व पुरषों की भीड़ उमड़ी रहती है.
    कोशी प्रमंडलीय मुख्यालय के जिला सहरसा से करीब 5 किलो मीटर दक्षिण सदर प्रखंड कहरा के दिवारी पंचायत स्थित माँ विषहरी भगवती दिवारी का ऐतिहासिक  व पौराणिक महत्व है.मंदिर की परम्परा रही है कि पुजारी नाई जाति के ही वंशज होते आ रहे हैं.पूरे श्रावण माह के मंगलवार को माँ विषहरी भगवती के दरबार में बैरागन मेले का आयोजन होता है और पूजा-अर्चना के लिए दूर-दराज के ग्रामीण इलाकों से माहिलाओ की ताँता लगी रहती है. कोशी के इलाके में भगवती पूजन की एक परम्परा है कि ग्रामीण महिलाएं समूह बनाकर शहर-गाव के देहरी-देहरी घूमकर माँ विषहरी की गीत गाकर डाली मांगती है और श्रावण पूर्णिमा के ही दिन डाली से मांगी रकम से मैया को चढ़ावा चढ़ाया जाता है.मंदिर परिसर में एक पौराणिक कूप है. श्रद्धालुओं दुआरा इस कूप में विषधर को धान का लावा व गाय की दूध पिलाने की भी प्रथा है. जिसका आज-तक श्रद्धालुओं दुआरा निर्वहन किया जा रहा है. जबकि इस मौके पर कूप व मंदिर परिसर में श्रद्धालुगण को सर्प का भी दर्शन होते रही है. इस मौके पर व इस विषहरी मंदिर में दूध व धान का लावा चढाने वाले को विषधर कुछ नहीं बिगार पाता है. इस भगवती मंदिर की एक मान्यता यह भी है की अगर किसी को कोई सर्प या बिछु डस लेता है तो मैया को चढ़ाया गया नीर (जल) पिलाने मात्र से ही विष नहीं चढ़ता है.जिसके कारण श्रावण  पूर्णिमा के दिन मईया पर चढ़ाये गए नीर को ग्रहण करने के लिए श्रद्धालुओं को काफी मसक्कत करना पड़ता है.
    श्रावण पूर्णिमा के दिन मंत्र साधक अपने चेलो के साथ पहले तालाब में स्नान कर स्वच्छ हो लेते है और अलग-अलग टोली में मईया के दरबार में चाटी चलाकर सिद्धी प्राप्ति करते है.जिसकी चाटी नहीं चली उसका मंत्र सिद्ध नहीं हुआ.उसे फिर अगले साल सिद्धी के लिए मैया के दरबार में आना पड़ेगा.मंदिर के भंडारी रामेश्वर राम का कहना था कि सिद्धी के लिए भगवती की पांचो बहन विषहरा,दौतला,
    पौदमा,अरवा एवं मैना के खुश होने के बाद ही चाटी चलती है.
    भगवती मंदिर से सटकर बहने वाली पौराणिक कैलदह नदी भी सुख गयी है. सिर्फ नदी की धार की रेखा दिखलाई देती है. मंदिर परिसर में विशाल बरगद व पीपल का पुराना वृक्ष आज भी है. जहाँ पहले इस मौके पर विभिन्न प्रजातियों के हजारो सर्प देखने को मिलता था वही आज पूजा के लिए भी दर्शन दुर्लभ हो गया है. मईया के दरबार में छागर बलि चढाने की भी प्रथा है.यहाँ छागर का पान-पूजा के बाद कान काट कर ही छोड़े जाने की नियम हो गयी है. इस प्रथा से बलि प्रदान में कमी आई है. अब श्रद्धालुओं की सजगता के कारण विशाल मंदिर का निर्माण भी किया जा रहा है.इस दिशा में पूर्व सांसद दिनेश चन्द्र यादव का योगदान सराहनीय है.