Friday, June 24, 2011

आफत में पमरिया संस्कृति "कौन गाएगा बधाई "

गोद में बच्चे को लेकर गांव में बधाई गेट पमारिया


पमारिया की टोली


  आफत में पमरिया संस्कृति :-
  ”राजा दशरथ के चारो ललनमा हो रामा, खेलेला अंगनमा. किनका के श्रीराम किनका के लक्ष्मन, किनका के भारत हो ललनमा हो रामा, खेलेला अंगनमा”
 आखिर कौन गाएगा बधाई 
 समाज को नहीं है बधैया - संस्कृति की फिक्र 

 आधुनिक संस्कृति के बढ़ते प्रकोप की वजह से कोशी व मिथिलांचल की बधैया संस्कृति आफत में पड़ गयी है . इस वजह से बधैया गाने वाले कलाकारों के समक्ष जहाँ जीवन-यापन का संकट बन गया है वहीं अब डर है की बधैया संस्कृति कहीं इतिहास के पन्नों की इक कहानी बनकर न रह जाए. आखिर समाज को इस संस्कृति की फिक्र क्यों नहीं हो रही है. मिथिलांचल के मधुबनी जिले के मिथिलाडीह व लखनौर प्रखंड में पमारिया जाति की विशाल आबादी है. इस जाति के जीवनयापन का मुख्य साधन बधैया कला ही है. लेकिन गांव समाज में बधैया संस्कृति के प्रति घटते लगाव ने इस कला के लिए चुनौती साबित हो रही है. मिथिलांचल के इस परंपरागत कला का सम्पूर्ण बिहारवासी कायल थे. लेकिन आज कोशी क्षेत्र के सहरसा, मधेपुरा, सुपौल ही नहीं सीमांचल के अररिया, पूर्णिया, किशनगंज और कटिहार जिले में ही सिमट कर रह गयी है. यूँ कहा जा सकता है कि इस परम्परा को अकक्षुण रखने में कोशी, सीमांचल और मिथिलांचल वासियों का बड़ा योगदान है. पमारिया समाज आज भी गांव-गांव घूम कर बधैया गीत गाते है और उससे होने वाली आमदनी से परिवारों का भरण-पोषण करते हैं. लोगों के दिल बहल लाने के लिए अब पमारिया को बधाई के साथ-साथ कौवाली भी गाना पर रहा है. ताकि लोगों का मन बहल सके और बधाई के नाम पर स्वेक्षा से न्योछावर (दान) देने में कोताही न बरते. आज भी गांव व शहरों में जिनके घर बच्चा जन्म लेता है उनके घर सवा महीने के अन्दर किसी न किसी रूप में बधाई मांगने वाले धमक जाते हैं और परिजनों को हंसा-खेलाकर बधाई ले जाते हैं. अब लोग बधाई गाने वालो को देख कर कतराने लगे हैं. बधाई गाने वाले के कला में भी कमी आई है. लोग बधाई गीत सुनकर भी बधाई का मेहनताना नहीं देते हैं. इस वजह से सैकड़ो की टोली में बधैया गाने वालो की टोली इक्के-दुक्के में सिमट कर रह गयी है. मधुबनी लखनौर के मरहूम फूल मोहम्मद के वालिद मो. कयामूल और मो. कयामूल के वालिद रजा बाबू, कलीम पमरिया के वालिद हीरा, उमर फारुक का वालिद सिद्दकी, वाजिद का मो. खुरशीद आज भी गांव-गांव घूम कर बधैया कला को न केवल जीवीत रखने का प्रयास करते है बल्कि परिवार का पेट भी पाल रहे हैं. ये सभी मरहूम मनीर क़व्वाल के शागिर्द हैं. मनीर क़व्वाल के शागिर्दों का कहना है कि मिथिलांचल के झंझारपुर, कैथनिया, नवटोल, लखनौर में अब भी न्योछावर (दान) की जबर्दश्त परम्परा है. बधैया के बगैर नवजात बच्चों को शुद्ध नहीं माना जाता है और साथ ही लोगो की मान्यता है कि बधैया से बच्चे की उम्र में वृद्धि होती है. ये मान्यता आज भी कायम है. पमरिया का कहना है कि जब राजा दशरथ के पुत्र भगवान श्रीराम तक से बधैया गाकर दान लेने का इतिहास है तो आम लोगों को समझना चाहिए की पमरिया को दान देना सीधे भगवान श्रीराम के भक्त को दान दे रहे हैं. खुशनामे की इस भोली परम्परा को पमरिया समाज गरीबी में भी बरकरार रखे हुए है. पमरिया के इस संस्कृति व कला से बच्चों को लम्बी उम्र व वंश वृद्धि का आशीर्वाद भी मिलता है. बधैया की परम्परा हिंदु व मुसलमान दोनों समुदाय में है और ये दोनों समुदाय के आपसी सौहार्द का प्रतीक भी माना जा सकता है. ”राजा दशरथ के चारो ललनमा हो रामा, खेलेला अंगनमा. किनका के श्रीराम किनका के लक्ष्मन, किनका के भारत हो ललनमा हो रामा, खेलेला अंगनमा आज भी पमरिया खूब गाते हैं. लेकिन अब बधैया कला को अकक्षुण बनाये रखना शौक व कला का साधन नहीं बल्कि जीविका जीने की मजबूरी है.                          
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Bhakkha Ka Bazar



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खत्म हो रही है जलीय जैविक:-देशी मछ्ली

जहरीली दवा व महाजाल से विलुप्त हो रही देशी मछली






खत्म हो रही है जलीय जैविक:- मछली माही मे लगातार किए जा रहे रसायनिक उपयोग व महाजाल की वजह से देशी व जंगली मछली अब विलुप्त होने के कगार पर पहूंच गयी है. जिसके कारण कोसी तटबंधीय क्षेत्र के बाजारों में भी देशी मछलियों की आवक बिल्कुल नहीं हो रही है. अब यह कहा जा सकता है कि कोसी के चौर-चांप देशी मछलियों के लिए बांझ बन गयी है. बतातें चलें कि कोसी नदी क्षेत्र में पाये जाने वाली 122 किस्म की मछलियों में कबई, रेबा, टेंगरा, पलवा, बामी, पोठी,  चेचरा, रीठा, भेंगना, ढल्लो, मरवा, मांगुर एवं सिंघी जैसी स्वादिष्ट मछलियां ही अब तक पायी जाती है, शेष प्रजाती की मछलियां अब ढूंढने से भी चैर-चांप व नदी में नहीं मिलती है. लुप्त हो चुकी प्रजातियों की मछलियों में कंडवाल, फौकचा, राजवास, सुसुक, कंचल, लाल कतला, सुही चंदा, केशरी चंदा, सावन खरीका, ढुनका, पतासी, गुथल नगरा, कोसवती, अन्नाई, कचल, ढोकना आदि शामिल है. लेकिन अब हालत ये है कि ऐसी मछलियां बाजार तो क्या नदी क्षेत्रों से भी गुम हो गयी है. इतना ही नहीं देशी रेहु, कतला, ईचना, बेलौंदा, गड़ई, सौराठी भी नहीं दिखता है. इन खास मछलियों की प्रजाति कोशी नदी के छारण धारा से बिलग जल-जमाव व चौर-चांप में अधिक पायी जाती थी. लेकिन इन मछलियों को माही करने के लिए जब से मछुआरों द्वारा परम्परागत तरीके को नजरअंदाज किया गया है तभी से मछलियां देखने को नहीं मिल रही है. जब उपरोक्त प्रजाति की मछलियां वर्तमान बाजार में आती है तो उसका अनाप-शनाप भाव होता है. इस स्वाद के आदती लोगों को किसी भी भाव में खरीदना लाचारी हो जाती है.बाजार की स्थिति यह है कि देशी मछली का भंडार कहे जाने वाले सहरसा में आंध्र प्रदेश की मछलियां बिक रही है. एक वृद्ध मछुआरा ने बताया कि पहले लोग परम्परागत तरीके से जाल व धांसा से मछली माही किया करते थे तो मछली भी पकड़ी जाती थी और बीज ¼जीरा½ भी सुरक्षित रह जाता था. लेकिन जब से जहरीली दवा का उपयोग मछली माही में होने लगी है तभी से मछलियां विलुप्त होने लगी है. इसके अलावा महाजाल का भी उपयोग खूब किया जाता है. मछली के बीज तक को महाजाल से छांक लिया जाता है. जबकि मछली के बीज को नष्ट करना मछुआरों का मकसद नहीं होता है. परन्तु जब महाजाल व जहरीली दवा का उपयोग किया जाता है तो मछली की जीरा तक बाहर निकल आती है.