Monday, July 4, 2011

मंडन धाम महिषी को जाने

मंडन धाम,महिषी 
मीमांसक दर्शन के उद्भट विद्वान मण्डन मिश्र                           
पुरातत्वविद अधीक्षण फनिकांत मिश्र को पुरातात्विक अवशेष दिखाते ग्रामीण एवं पत्रकार

                 

                       जगद् ध्रुवं स्याज्जगद ध्रुवं स्यात् कीराड़ांगना यत्र गिरो गिरन्ति ।
                           द्वारस्थनीडान्तर सन्निरूद्धा जानीहि तन्मण्डन मिश्र-धाम ।।

अर्थातः-’’जिसके द्वार पर पिंजड़े की सारिकाएं जगत् सत्य है या जगत अनित्य है, यह बात बोलती रहती है, उसी द्वार को मंडन मिश्र का निवास जान लेना’’ संस्कृत की यह कथानक श्लोक किसी विद्वान की नहीं है बल्कि मंडन धाम की पनिहारिन ने देश के चार कोनों में वेदांत पीठों की स्थापना कर अद्वैत वेदांत के प्रचार प्रसार के लिए अनेक यात्राएं की व कई विद्वानों से शास्त्रार्थ कर मंडन मिश्र से शास्त्रार्थ करने महिषी विराजे आदि शंकराचार्य को कही.
वेदांत ग्रंथो के रचयिता एवं मीमांसक दर्शन के उद्भट विद्वान मंडन मिश्र व कालांतर के सुरेश्वराचार्य की जन्म स्थली महिषी सहरसा से 17 किलो मीटर पश्चिम और वर्तमान कौशिकी व पौराणिक महिषी धर्मूला नदी तट पर अवस्थित है.मीमांसाशास्त्र के प्रकाण्ड विद्वान व ब्राह्मण कुल में जन्मे कुमारिल भट्ट के मंडन मिश्र परम शिष्य थे. कुमारिल भट्ट वेदीनिहित कर्मकाण्ड को हीं मुक्ति का मार्ग मानते थे. ज्ञान-पिपासा को शांत करने के लिए हीं कुमारिल भट ने बौद्ध धर्म तक को अपनाया और जब उनकी ज्ञान-पिपासा को बौद्ध धर्म भी शांत नहीं कर सका तो वे मीमांसक हो गये तथा बौद्ध गुरूओं को शास्त्रार्थ में परास्त कर उक्त धर्म का विरोध किया. ’’शंकर-दिग्विजय’’नामक पुस्तक में दोनों विद्वानों के शास्त्रार्थ की विस्तारपूर्वक उल्लेख किया गया है.
शंकराचार्य ने अल्प आयु में हीं देष के दक्षिण में श्रृंगेरी, उत्तर में बद्रिकाश्रम, पश्चिम में द्वारिका एवं पूरब में पुरी तक कठिन परिस्थितियों में यात्रा कर अपने उच्च दर्शन से भारतीय जनमानस को सांस्कृतिक एकता के सूत्र में पिरोने काम किया. काशी से बद्रिकाश्रम प्रवास के दौरान हीं शंकराचार्य ने ’प्रस्थानत्रयी ’(उपनिषद्,ब्राह्म सूत्र, श्रीमद्भगवतगीता) पर स्वभाष्य की रचना की. शंकराचार्य ने काशी से लौटने के बाद प्रयाग स्नान के दौरान हीं सुना था कि कुमारिल भट्ट साधे हुए मीमांसक है और वेदों की प्रमाणिकता में अटूट विश्वास रखते हैं तथा वे वेदाकलहित कर्मकाण्ड को हीं मुक्ति का मार्ग मानते हैं. शंकराचार्य जब कुमारिल से शास्त्रार्थ की इच्छा से मिलने गए तो देखा कि वे आत्मदाह की प्रयास के कारण आधे जल चुके हैं और अधजले अवस्था में हीं कुमारिल ने शंकरचार्य को अपने शिष्य मंडन मिश्र से शास्त्रार्थ की सलाह दी. कुमारिल के सलाह को हीं शीरोधार्य मान शंकराचार्य ने सहरसा जिले के महिषी अवस्थित मंडन मिश्र के निवास स्थान पहूंचे और इस यात्रा के क्रम में हीं उन्हें महिषी के वैदुष्य की ज्ञान की जानकारी भी मिल चुकी थी. दोनों महापंडित जब एक-दुसरे के सन्नमुख हुए तो शास्त्रार्थ का विषय का ज्ञानवाद व कर्मवाद का निर्धारण किया गया और मध्यस्थता विदुषी मंडन भारती ने की. इस शास्त्रार्थ में मंडन मिश्र जब पराजित हो गये तब विदुषी ने षंकराचार्य से कहा कि पत्नी-पति की अद्र्धांगिनी होती है और जब तक अद्र्धांगिनी को परारिजत नहीं किया जाता तब तक पराजित नहीं मानी जायगी. शंकराचार्य ने इस चुनौती को स्वीकार कर मंडन भारती से शास्त्रार्थ करने को राजी हुए तो भारती ने ’कामशास्त्र ’ से जुड़े सवालों के प्रश्नों का जवाब देना बह्मचर्य शंकराचार्य के लिए संभव नहीं रह गया और वे पराजित मान लिए गये. इस शास्त्रार्थ में कितना वक्त लगा इसमें भी विद्वानों के अलग-अलग मत हैं. कोई सात दिन तो कोई पन्द्रह से बीस दिन मान रहे हैं. शंकर दिग्वजय पुस्तक में चर्चा है कि कुछ वक्त लेने के बाद शंकराचार्य ने यौगिक क्रिया से अपने स्थूल शरीर को त्याग कर तत्क्षण दिवंगत हुए राजा अमरूक के शरीर में प्रवेश कर कामष्याास्त्र की ज्ञान अर्जन किये. फिर उसके बाद वापस महिषी लौटकर भारती मंडन को जवाब दिया गया.सहरसा जिले की इस भू-भाग को जगत गुरू आदि शंकराचार्य का पदार्पण व मंडन मिश्र से शास्त्रार्थ के कारण हीं इतनी बड़ी प्रसिद्धी प्राप्त है. मंडन मिश्र की जन्म व जन्म स्थली को लेकर भी लोगों में भौगोलिक मतांतर है. हालांकि पुरातŸवविदों ने अनुमान लगाया है कि जब शंकराचार्य का काल खंड 788 ई. से 820 ई.के बीच माना जाता है तो उसी आधार पर मंडन मिश्र का जन्म आठवीं सदी में होने का अनुमान लगाया है.  
वैसे मंडन मिश्र की जन्म स्थली को लेकर चली आ रही भौगोलिक मतांतर को 18 अप्रैल 07 को विश्व धरोहर दिवस के रोज भारतीय पुरातŸव सर्वेक्षण पटना अंचल के अधीक्षण पुरातŸवविद् फणी कांत मिश्र ने भौगोलिक साक्ष्य, लोक विश्वास,किंवदन्तियां सहित प्राप्त पुराताŸिवक अवशेष के आधार पर मंडन मिश्र की पृष्टभूमि पर मुहर लगाया और कहा कि कोसी के महिषी हीं मंडन मिश्र का धाम है इस पर विवाद नहीं होने दूंगा यह निर्विवाद है. पुरातत्व स्थलों के अध्ययन के बाद श्री मिश्र ने बताया कि महिषी में मोर्य कालीन, गुप्तकालीन एवं बौद्ध कालीन अवशेष अध्ययन में मिल रहे है और  बौद्ध कालीन अवशेष के प्रमाण साक्षात माँ तारा की प्रतिमा है. उन्होंने कहा कि मोर्य काल तक की सामग्रियां मिल रही है जबकि मंडन मिश्र मोर्य काल के बाद के हैं तो निःसंदेह यह धरती मंडन मिश्र की हीं है.

                                   

जल आधारित कृषि मखाना

कोसी व मिथिलांचल की जल आधारित कृषि मखाना

  •       सुपाच्य व्यंजन के रूप में  मखाना स्थापित 

          मखाना कृषि मजदूरों के लिए सहज व जोखिम भी है.





जल कृषि:-कोसी व मिथिलांचल का जन-जीवन नदी सह जीवन पर आधारित रही है. इन क्षेत्रों में सामान्य कृषि के साथ जल आधारित कृषि को व्यापकता के साथ की जाती है. खासतौर पर जल आधारित कृषि को जल कृषक व मल्लाह मखाना की खेती को संयुक्त रूप से करते है. औने-पौने भावों में बिकने वाली पानी फल मखाना प्रसिद्ध व सुपाच्य व्यंजन के रूप में देश के मानचित्र पर स्थापित हो गया है. 
नदियों से आच्छादित कोसी व मिथला में तालाबों, पोखरों एवं चौर की जल प्रबंधन यहां की टिकाउ समृद्धि की कुंजी रही है. इस इलाके में सालों भर जल-जमाव की समस्या जहां सामान्य कृषि व्यवस्था को चौपट करती है वहीं जल कृषक मखाना की खेती पर निर्भर होकर जीवन यापन करते हैं. गरीब से गरीब कृषक भी सहजता पूर्वक मखाना की खेती करते हैं. मखाना कृषि मजदूरों के लिए सहज व जोखिम भी है. मजदूरों को आग व पानी दोनों से जूझना पड़ता है. 

फसल का समय:- अमूमन मार्च व अप्रैल माह से मखाना की बोआई शुरू होकर अगस्त में फसल परिपक्व हो जाती है. मखाना की एक फल में 25 से 30 दाना पाया जाता है और परिपक्व फल फूट कर पानी के अंदर जमीन में बैठ जाता है. पानी के अंदर बैठे गुडि़या ¼दाना½ को मल्लाह मजदूरों के द्वारा गोता लगाकर कृषि उपकरण गांज की सहयोग से बाहर निकाल लिया जाता है. फिर गुडि़या को सुखाकर कई साईजों में छांटने के बाद महिला व बच्चों के द्वारा भुंजाई व फोड़र्द्या कर प्रकिया की अंतिम रूप मखाना की लावा बनती है.खासकर मल्लाह जाति को हीं सर्वश्रेष्ठ मखाना उत्पादन करने की कौशल-कला में महारथ हासिल है.
देश के अंदर बिहार व आसाम में अधिकांश तौर पर मखाने की खेती होती है. आसाम में मखाना खेती की तकनीक बिहार के कोसी से हीं मिली है. अब भी इन इलाकों से आसाम में मखाना की खेती हेतु मजदूरों को ले जाया जाता है. मखाना की खेती नहीं हो तो वर्तमान में बिहार के कोसी क्षेत्र से मजदूरों के पलायन की जो स्थिति है वह चौगुणी हो जायगी. इस ईलाके की अधिकांश मानव श्रम की खपत मखाना उत्पादन में होती है. मखाना की खेती में महिला व बच्चों को भी रोजगार के सुअवसर प्राप्त होते हैं. देहाती बाजारों में उत्पादित मखाना भी अब अन्य वस्तुओं की तरह रंग-बिरंगे पाउच के अलावे अत्याधुनिक प्रचार-प्रसार के जरिए महानगरों के बाजारों पर कब्जा जमा लिया है. 
बाज़ार:- कोसी क्षेत्र से उत्पादित मखाना का लखनउ, कानपुर, दिल्ली एवं बनारस मुख्य बाजार है. जिस प्रकार देश के कई बाजारों पर मछली आपूर्ति में आंध्र प्रदेश का कब्जा है उसी तरह मखाना आपूर्ति में बिहार की कोसी व मिथिलांचल का कब्जा है. वैसे भी कोसी व मिथिलांचल में मौध ¼मधु½, माछ ¼मछली½, पान एवं मखान की संस्कृति रही है. आतिथ्य स्वागत से लेकर शादी-ब्याह, पूजा-पाठ तक में भी बगैर मखाना की रश्में पूरी नहीं होती है. कोसी व मिथिलांचल की कहावत है पान व मखान स्वर्ग में भी नहीं मिलती है. 
उपयोग:- मखाना फल का उपयोग खासकर कोसी क्षेत्र में आगन्तुकों के स्वागत के लिए माला के रूप में भी किया जाता है। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीकुमार व शरद यादव का भी मखाने की माला से भव्य स्वागत किया गया॰ इसके बाद भी इन नेताओं ने मखाना की खेत व किसान के विकास के लिए खास योजना शुरू नहीं किये॰ जबकि माला तो इसलिए पहनाया गया था कि वे इसकी महत्ता को समझे और इसके विकास की दिशा में सोचे॰        












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