होली पर्व से जुड़ी पूर्णिया का ऐतिहासिक स्थल सिकलीगढ़ किला
- सिकलीगढ़
किला बनमनखी के धरहरा में है अवस्थित
- हिरण्यकाश्यप
का नरसिंग अवतार का खंभा अब भी यादों को रहा ताजा
क्षितिज
कुमार/पूर्णिया
देश
में जहां जायें आपको चैक-चैराहांे पर मंदिर बना हुआ मिल जायेंगे। अगर पूर्णिया की
ही बात करें तो यहाँ भी सैकड़ो की संख्या में मंदिर है। जिसमें एक ऐसा भी मंदिर है
जिसका अपना एक ऐतिहासिक महत्व व तथ्य भी है। इतना ही नहीं हिन्दू धर्म के आस्था से
भी जुड़ा हुआ है। जिसकी परवाह न पूर्णिया वासियों को है और न ही बिहार सरकार को। जी
हाँ, हम
बात कर रहे है बनमनखी प्रखंड के धरहरा स्थित सिकलीगढ़ किला का। जहाँ भगवान विष्णु
ने नरसिंग अवतार लेकर हिरण्यकाश्यप का वध किया था। प्राचीन कथा के अनुसार होलिका
के मरने के बाद होली त्यौहार की शुरुआत हुई थी। बनमनखी के धरहरा में आज भी वह खंभा
मौजूद है। जिसे फाड़ कर नरसिंग भगवान ने अवतार लिया एवं हिरण्यकाश्यप का वध भी
किया। आज यह जगह जीर्णशीर्ण अवस्था में पड़ा हुआ है। इस जगह को आज तक बिहार सरकार
पर्यटन स्थल भी घोषित नहीं कर पायी है। हालांकि यह स्थल पहले से बेहतर जरूर हुआ
है। इस क्षेत्र को लोग श्रीहरि नरसिंग अवतार स्थल, प्रह्लाद नगर, सिकलीगढ़ धरहरा,बनमनखी (पूर्णिया) के रूप में जानते
हैं।
बनमनखी प्रखंड के ही कुछ लोगों ने इस ऐतिहासिक धरोहर को अक्षुण्ण रखने का संकल्प लिया है। हरेक साल होली में यहाँ होलिका दहन का विशेष आयोजन किया जाता है। जिसे देखने के लिए देश-विदेश से षैलानी आते है। लोगो का जज्बा देख कर तत्कालीन अनुमंडला पदाधिकारी डॉ.मनोज कुमार ने ग्रामीणों का साथ दिया और सभी के अथक प्रयास से भगवान विष्णु का एक भव्य मंदिर बना। जिस खम्बे से भगवान ने नरसिंग के रूप में अवतार लिए उस जगह की घेराबंदी कर खम्बा को सुरक्षित रखा गया है। यहाँ के कोषाध्यक्ष का कहना है की इस धरोहर को बचाने के लिए विधायक से लेकर सांसद तक और पर्यटन मंत्री से लेकर मुख्यमंत्री तक अनुरोध किया गया। मगर आजतक आश्वासन के सिवा कुछ नहीं मिला है। इस स्थल को प्र्यटन स्थल की सूची में दर्ज कर लिया जाता तो षायद इस क्षेत्र की तस्वीर बदली होती।
भक्त
प्रलाद को लेकर सम्मत पर बैठी थी होलिका
हिन्दू
पंचांग के अंतिम मास फाल्गुन की पूर्णिमा को होली का त्योहार मनाया जाता है। होली
का त्योहार मनाए जाने के पीछ कई कथाएं प्रचलित हैं। होली की सबसे प्रमुख कथा में राजा
हिरण्यकश्यप को राक्षसों का राजा कहा गया है। उसका एक पुत्र था जिसका नाम प्रह्लाद
था। वह भगवान विष्णु का परम भक्त था। राजा हिरण्यकश्यप भगवान विष्णु को अपना शत्रु
मानता था। जब उसे पता चला कि प्रह्लाद विष्णु का भक्त है तो उसने प्रह्लाद को
रोकने का काफी प्रयास किया। लेकिन तब भी प्रह्लाद की भगवान विष्णु की भक्ति कम
नहीं हुई। यह देखकर हिरण्यकश्यप प्रह्लाद को यातनाएं देने लगा। हिरण्यकश्यप ने
प्रह्लाद को पहाड़ से नीचे गिराया,हाथी के पैरों से कुचलने की कोशिश की, किंतु भगवान विष्णु की कृपा से प्रह्लाद को कुछ
भी नहीं हुआ। हिरण्यकश्यप की एक बहन थी, होलिका।
उसे
वरदान था कि अग्नि उसे जला नहीं सकती। हिरण्यकश्यप ने प्रह्लाद को मारने के लिए
होलिका के वरदान का सहारा लिया। होलिका प्रह्लाद को गोद में बैठाकर आग में प्रवेश
कर गयी, फिर
भी भगवान विष्णु की कृपा से तब भी भक्त प्रह्लाद बच गया और होलिका जल गई। तभी से
बुराई पर अच्छाई की जीत के प्रतीक रूप में होली का त्योहार मनाये जाने लगा।
नरसिंग
अवतार ने ही किया था हिरण्यकाश्यप का वध
हिरण्यकाश्यप
एक अहंकारी असुर था जिसकी कथा पुराणों में आती है। उसका वध नृसिंह अवतारी विष्णु
द्वारा किया गया। हिरण्याक्ष उसका छोटा भाई था जिसका वध बराह ने किया था। विष्णु
पुराण में वर्णित एक कथा के अनुसार दैत्यों के आदिपुरुष काश्यप व उनकी पत्नी दिति
के दो पुत्र हुए। हिरण्यकाश्यप और हिरण्याक्ष। हिरण्यकाश्यप ने कठिन तपस्या द्वारा
ब्रह्मा को प्रसन्न करके यह वरदान प्राप्त कर लिया कि न वह किसी मनुष्य द्वारा
मारा जा सकेगा न पशु द्वारा, न दिन में और न ही रात में, न घर के अंदर न बाहर, न किसी अस्त्र के प्रहार से और न किसी
शस्त्र के प्रहार से उसक प्राणों को कोई डर रहेगा। इस वरदान ने उसे अहंकारी बना
दिया और वह अपने को अमर समझने लगा। उसने इंद्र का राज्य छीन लिया और तीनों लोकों
को प्रताड़ित करने लगा। वह चाहता था कि सब लोग उसे ही भगवान मानें व पूजा करे। उसने
अपने राज्य में विष्णु की पूजा को वर्जित कर दिया। भगवान विष्णु का हिरण्यकाश्यप
का पुत्र प्रह्लाद घोर उपासक था और पिता के यातना व प्रताड़ना के बाद भी वह विष्णु
की पूजा करता रहा। क्रोधित होकर हिरण्यकाश्यप् ने अपनी बहन होलिका से कहा कि वह
अपनी गोद में प्रह्लाद को लेकर प्रज्ज्वलित अग्नि में चली जाय क्योंकि होलिका को वरदान
था कि वह अग्नि में नहीं जलेगी। जब होलिका ने प्रह्लाद को लेकर अग्नि में प्रवेश
किया तो प्रह्लाद का बाल भी बाँका न हुआ पर होलिका जलकर राख हो गई। अंतिम प्रयास
में हिरण्यकाश्यप ने लोहे के एक खंभे को गर्म कर लाल कर दिया तथा प्रह्लाद को उसे
गले लगाने को कहा। एक बार फिर भगवान विष्णु प्रह्लाद को उबारने आए। वे खंभे से
नरसिंह के रूप में प्रकट हुए और हिरण्यकाश्यप को महल के प्रवेश द्वार की चैखट पर,
जो न घर का बाहर
था न भीतर, गोधूलि
बेला में, जब
न दिन था न रात, आधा
मनुष्य, आधा
पशु जो न नर था न पशु ऐसे नरसिंह के रूप में अपने लंबे तेज नाखूनों से जो न अस्त्र
था न शस्त्र, मार
डाला। इस प्रकार हिरण्यकाश्यप अनेक वरदानों के बावजूद अपने दुष्कर्मों के कारण
भयानक अंत को प्राप्त हुआ। जिस खम्बे से भगवान ने अवतार लिया वह खम्बा आज भी
पूर्णिया जिले के बनमनखी प्रखंड के धरहरा में विद्यमान है।