कोशी की संस्कृति:
मईया की महिमा अपरंपार
कही पशु बलि तो कही दूध की ढार
- तारा स्थान में अष्टमी को बेजुबान पशुओ को दी जाती है बलि
अराध्य देवी वशिष्ट अराधिता माँ तारा मंदिर महिषी |
चढ़ती है. श्रद्धालुओ
के बीच मईया की पूजा-अर्चना कर खुश करने के अलग-अलग
तरीके हैं. सहरसा
जिले के महिषी गांव स्थित अराध्य देवी वशिष्ट अराधिता माँ तारा
को बलि प्रदान
कर तो संत बाबा कारू खिरहरी को दूध की ढार चढ़ाई जाती है.
नवरात्रा के अष्टमी के अवसर पर धर्म के
आडम्बरदारो दुआरा महिषी गांव
स्थित
अराध्य देवी वशिष्ट अराधिता माँ तारा की दरबार में
बेजुबान पशुओ को बलि दिए
जाने की परम्परा आज भी कायम है. बलि की कारुणिक व
हृदयविदारक दृश्य
को श्रद्धालु भक्तजन अपनी नंगी आँखों से दीदार
करते है. एक तरफ बेजुबान पशुओ
को बलि दी जाती है तो दूसरी तरफ मन्नते पूरी होने
पर पुनः बलि चढाने की
माँ भगवती तारा से कामना की जाती है. सवाल यह है
कि जब गौ हत्या पाप है तो
फिर भैसे की हत्या महापाप क्यों नहीं होती है ? जगतगुरु
शंकराचार्य को शास्त्रार्थ में
परास्थ करने वाली मंडन भारती की धरती को बेजुबान
पशुओ की बलि प्रथा के विरोध
में आखिर सांप क्यों सूंघ जाता है. हरेक साल
उग्रतारा महोत्सव भी होती है,सेमिनार
भी आयोजित की जाती है. लेकिन सेमिनार का विषय
पशुओ की बलि प्रथा नहीं होती.
जरा सोचे...जबकि महिषी प्रखंड क्षेत्र के मह्पुरा
गांव स्थित पूर्वी कोशी तटबंध से
सटे संत बाबा कारू खिरहरी स्थान में नवरात्रा के
सप्तमी को पशुपालकों दुआरा दूध
चढ़ाने की परम्परा है और उस दिन कोशी नदी की खलखल
धारा दूध की नदियों की
अब संस्कृत नहीं बोली जाती है:-
जिस प्रदेश में पशु-पक्षी समेत गांव की पनभरनी भी
संस्कृत में संवाद करती थी आज
वहाँ शुद्ध-शुद्ध क्षेत्रीय भाषा बोलने वालों की
भी कमी हो गयी है. ऐसी मान्यता है कि
माँ तारा सहित अन्य भगवती स्थानों में पशुओ की
बलि देने से श्रद्धालु-भक्तो की
सभी मनोकामनाए पूरी हो जाती है. इसी प्रकार की
पौराणिक मान्यताओ की वजह से
पशु बलि प्रथा रुकने के बजाय और बढ़ती ही जा रही
है.
बलि प्रदान के पीछे इक ओंर मान्यता है कि जिस
श्रद्धालु का एक बार पशु बलि चढ़
जाती है वे अपने-आप को मईया भगवती की कृपा मानते
हैं. सफलतापूर्वक बलि प्रदान
होने के लिए श्रद्धालु-भक्तजन सहमे-सहमे रहते
हैं. जबकि सही मायने में उन बेजुबान
पशुओ को सहमना चाहिए जिसकी बलि चढ़ती है.बलि से
सहमे इन बेजुबान पशुओ
की भाषा कौन समझता है. भक्ति के अन्धविश्वाश में डूबे
श्रद्धालुओं के दुआरा पहले भैसे को पोखरा में नहलाया जाता है,फिर उसके बाद
नए लाल वस्त्र को ओढ़ाकरभगवती के दरबार में परिक्रमा करवाया जाता है.
परिक्रमा के दौरान भक्तजनों व बच्चों के दुआरा भैंसे के पीछे जय माँ तारा,जय
माँ तारा की जयघोष से इलाका गुंजायमान रहता है. उसके बाद भगवती दरबार के
समक्ष बलि स्थल पर लकड़ी के बने फांस में गर्दन डालकर पंडित तलवार से एक छह
में भैंसे की सर को धर से अलग कर देता है.
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गजब की बात ये है कि भैंसे के बलि
प्रदान के बाद जैसे ही सर धार से अलग हुआ की भारी संख्या में उमड़े श्रद्धालुओं
के बीच भैंसे के रक्त की अपने ललाट पर तिलक लगाने लिये भगदड़ मच जाती है. परन्तु
किसी को ये परवाह नहीं की देवी दुर्गा के दुआरा वध किया गया भैंसे की
शक्ल में महिषासुर नहीं
बल्कि वास्तव में बेजुबान भैसा ही है. जिसे अपने
स्वार्थ के लिए वध किया गया है. जबकि देवी दुर्गा सृष्टि पर रहने वाले समस्त
जीवों की रक्षा के लिए और देवी से
बचने के लिए महिषासुर ने भैंसे का रूप धारण किया
था. जिसको देवी दुर्गा ने अपने
ही हाथों वध कर दी थी. लेकिन धर्म के आडम्बरदारो के
दुआरा महिषासुर का प्रतीक
बेजुबान भैंसे को मानकर आज भी बलि चढ़ाने की
परम्परा को कायम किये हुए है और इसे भगवती की आराधना मानते है.
परन्तु किसी को ये परवाह नहीं की देवी दुर्गा के दुआरा वध किया गया भैंसे की शक्ल में महिषासुर नहीं नहीं की देवी दुर्गा के दुआरा वध किया गया भैंसे की शक्ल में महिषासुर नहीं बल्कि वास्तव में बेजुबान भैसा ही है. जिसे अपने स्वार्थ के लिए वध किया गया है.जबकि देवी दुर्गा सृष्टि पर रहने वाले समस्त जीवों की रक्षा के लिए और देवी से बचने के लिए महिषासुर ने भैंसे का रूप धारण किया था. जिसको देवी दुर्गा ने अपने ही हाथों वध कर दी थी. लेकिन धर्म के आडम्बरदारो के दुआरा महिषासुर का प्रतीक बेजुबान भैंसे को मानकर आज भी बलि चढ़ाने की परम्परा को कायम किये हुए है और इसे भगवती की आराधना मानते है.
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