खत्म हो रही है जलीय जैविक:- मछली माही मे लगातार किए जा रहे
रसायनिक उपयोग व महाजाल की वजह से देशी व जंगली मछली अब विलुप्त होने के कगार पर
पहूंच गयी है. जिसके कारण कोसी तटबंधीय क्षेत्र के बाजारों में भी देशी मछलियों की
आवक बिल्कुल नहीं हो रही है. अब यह कहा जा सकता है कि कोसी के चौर-चांप देशी
मछलियों के लिए बांझ बन गयी है. बतातें चलें कि कोसी नदी क्षेत्र में पाये जाने वाली 122 किस्म की मछलियों में कबई, रेबा, टेंगरा, पलवा, बामी, पोठी, चेचरा, रीठा, भेंगना, ढल्लो, मरवा, मांगुर एवं सिंघी जैसी स्वादिष्ट मछलियां ही अब तक पायी जाती है, शेष प्रजाती की मछलियां अब ढूंढने से भी चैर-चांप व नदी में नहीं मिलती है. लुप्त हो चुकी प्रजातियों की मछलियों में कंडवाल, फौकचा, राजवास, सुसुक, कंचल, लाल कतला, सुही चंदा, केशरी चंदा, सावन खरीका, ढुनका, पतासी, गुथल नगरा, कोसवती, अन्नाई, कचल, ढोकना आदि शामिल है. लेकिन अब
हालत ये है कि ऐसी मछलियां बाजार तो क्या नदी क्षेत्रों से भी गुम हो गयी है. इतना
ही नहीं देशी रेहु, कतला, ईचना, बेलौंदा, गड़ई, सौराठी भी नहीं दिखता है. इन खास मछलियों की प्रजाति कोशी नदी के
छारण धारा से बिलग जल-जमाव व चौर-चांप में अधिक पायी जाती थी. लेकिन इन मछलियों को
माही करने के लिए जब से मछुआरों द्वारा परम्परागत तरीके को नजरअंदाज किया गया है
तभी से मछलियां देखने को नहीं मिल रही है. जब उपरोक्त प्रजाति की मछलियां वर्तमान
बाजार में आती है तो उसका अनाप-शनाप भाव होता है. इस स्वाद के आदती लोगों को किसी
भी भाव में खरीदना लाचारी हो जाती है.बाजार की स्थिति यह है कि देशी मछली का
भंडार कहे जाने वाले सहरसा में आंध्र प्रदेश की मछलियां बिक रही है. एक वृद्ध मछुआरा ने बताया कि पहले लोग परम्परागत
तरीके से जाल व धांसा से मछली माही किया करते थे तो मछली भी पकड़ी जाती थी और बीज ¼जीरा½ भी सुरक्षित रह जाता
था. लेकिन जब से जहरीली दवा का उपयोग मछली माही में होने लगी है तभी से मछलियां
विलुप्त होने लगी है. इसके अलावा महाजाल का भी उपयोग खूब किया जाता है. मछली के
बीज तक को महाजाल से छांक लिया जाता है. जबकि मछली के बीज को नष्ट करना मछुआरों का
मकसद नहीं होता है. परन्तु जब महाजाल व जहरीली दवा का उपयोग किया जाता है तो मछली
की जीरा तक बाहर निकल आती है.
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