संजय सोनी/सहरसा
अब शहर से लेकर गांव तक के बच्चे व बच्चियां कबड्डी, गुड्डी कबड्डी व छू कित, कित, था.. से नहीं बल्कि टीवी व मोबाईल के गेम को ही अपने
मनोरंजन का प्रमुख साधन बना लिया है। घोघो रानी-कितना पानी, रूमाल चोर, पटना से चिट्ठी आयी है कोई देखा भी है जैसे खेलों को जानते
तक नहीं हैं। पारंपरिक खेल की जगह नन्हें-मुन्ने डारी मॉल, छोटा भीम, निंजा
हथोड़ी, सिनचैन, बालबीर को देखने के लिए पढाई छोड़कर भी टीवी के चैनलों से
चिपके रहते हैं। जबकि कोसी, गंगा व महानंदा के क्षेत्रों में बाढ के दिनों में भी बच्चे
पारंपरिक खेलों को खेलना नहीं भूलते थे। 2008 के कुसहा बाढ के दौरान जब जीवन
सामान्य हुई तो बच्चों ने पहले खेलना ही शुरू किया।
बच्चों का वर्ल्ड प्ले डे-
यूनाईटेड किंगडम का एक देश यानी ग्रेट ब्रिटेन के उत्तरी
भाग वाला देष स्काटलैंड ने 1989 में बाल अधिकार के रूप में खेल अधिकार को अपनाया
और संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन इसके एक प्रतिबद्ध समर्थक है। बच्चों के अन्य
अधिकारों की तरह खेल का भी राईट है। हालांकि बच्चों के लिए जीवन भर खेल सीखने का
महत्वपूर्ण आधार होता है। लेकिन मनोरंजन के आधुनिक व इलेक्ट्रानिक्स साधनों ने
बच्चों को पारंपरिक खेलों से वंचित कर दिया है। जबकि खेलने की जिज्ञासा बच्चों को
नये-नये उदाहरण भी देती है। खेल बच्चों को स्कूल में सफल होने व वयस्कों के रूप
में स्वयं के निर्णय लेने में मददगार साबित होती है। शिक्षा के लिए खेल आवश्यक कौशल
होती है। 1936 के बाद से ही दक्षिण अफ्रीका में कमजोर बच्चों के बीच खेल के प्रति
जागरूकता पैदा करने के लिए 28 मई को वर्ल्ड प्ले डे के रूप में अपनाया। इसका
प्रयोग पूर्व प्राथमिक व प्राथमिक विद्यालयों के माध्यम से दक्षिण अफ्रीका के
बच्चों के बीच किया गया।
ट्रैफिकिंग सहित बालक व बालिकाओं के अधिकार के सवाल निरंतर
कार्य करने वाली संस्था भूमिका बिहार आज भी कोशी, गंगा, व महानंदा में छोटे-छोटे
बच्चों के बीच पारंपरिक खेलों का आयोजन कर वर्ल्ड प्ले डे के प्रति जागरूक कर रही
है।
पानी व बच्चों के सवाल पर काम करने वाले युवा पर्यावरणविद्
भगवानजी पाठक कहते हैं कि पारंपरिक खेलों से बच्चों को अलग कर दिये जाने की वजह से
उनका मानसिक व शारीरिक विकास प्राकृतिक रूप से बाधित होता जा रहा है। उनका कहना है
कि बच्चों को पढाई तक सिमित न कर प्राकृतिक रूप से बच्चों के मानसिक व शारीरिक
विकास के लिए पारंपरिक खेलों के प्रति अभिभावकों द्वारा उत्प्रेरित करने की
आवष्यकता है। ताकि मानसिक व शारीरिक विकास भी प्राकृतिक रूप से विकसित हो सके।
बच्चों में खेल के प्रति जो रूझान होती थी वह अब नहीं रही। उन्होंने कहा कि जब से
मोबाईल, टीवी व इंटरनेट का जमाना आ गया है तब से मनोरंजन का साधन खेल नहीं होता है।
जो समाज व नई पीढ़ी के लिए अशुभ संकेत है। पहले अभिभावक भी खेल के लिए उत्प्रेरित
किया करते थे। इस बदलते परिवेश में सब कुछ बदल गया है। बच्चों का अपना जीवन शैली
भी छीना चला जा रहा है। पहले ग्रामीण ईलाकों में घोघो रानी, कितना पानी, जट-जटिन, खो-खो,
रूमाल चोर, सूई-धागा, जलेबी, कुर्सी दौड़, कबड्डी, गुड्डी कबड्डी, छू कित, कित, था,..वाली बाल खुब खेला जाता था। लेकिन अब ऐसा नहीं होता
है। रही क्रिकेट तो उसे भरी बच्चे टीवी पर ही देखना ज्यादा पसंद करते हैं। खेलने
के लिए न मैदान है और न ही बच्चों के बीच जिज्ञासा। इसलिए वर्ल्ड प्ले डे इस
पारंपरिक खेलों की हमें न केवल याद दिलाती है बल्कि समाज को सतर्क भी करती है।
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