Wednesday, May 18, 2016

वरदान की मैया कोसी बन गयी अभिशाप की जननी



  

-ललपनियां के जरीये हिमालय से आती है नदी क्षेत्र में पांक


  • - गम का मंजर लेकर आती है कोसी नदी की ललपनियां


कोसी व दियारा क्षेत्र की कृषि के लिए संजीवनी कहे जाने वाली पांक (खाद) का अभी माकूल वक्त है। हरेक साल इसी महीने में हिमालय से चलकर शिवालयों के रास्ते मृदा की औषद्यी पांक अब भी कोसी नदी में ललपनियां के साथ नीचे उतरती है। हालांकि हिमालय क्षेत्रों में वनों की अवैध कटाई व तटबंध निर्माण की वजह से अब पांक गाद में परिवर्तित हो गयी है। यही वजह है कि वरदान साबित होने वाली कोसी मैया अभिशाप की जननी बन गयी है। हिमालय की सबसे उंची चोटी माउंट एवरेस्ट व कंचनजंघा से सप्तकोशी के रास्ते नेपाल के चतरा स्थित बराह क्षेत्र में जमीन पर कदम रखने वाली कोशी नदी पहले अपनी धारा में जल के साथ नयी मिट्टी के अलावा पहाड़ों पर सालों भर सड़े-गले पेड़-पौधों व वनस्पतियों की पांक लाती थी। लेकिन अब पहाड़ों पर पेड़-पौधों की विरानगी ने सब कुछ उलट कर रख दिया।  
बाढ से आयी मिट्टी व पांक से बढती है खेतों की उर्वरा शक्ति
मृदा के लिए प्राकृतिक औषद्यी पांक के कारण ही कोशी नदी क्षेत्रों में बिना रसायनिक खाद डाले न केवल उन्नत खेती होती है बल्कि किसी भी क्षेत्र की खेती से दस गुना फसल उपज आसानी से मिलती है। यही कारण है कि कोशी दियारा क्षेत्र में आपराधिक तांडव व कोहराम किसी न किसी रूप में मचते रहती है।
अमूमन हरेक साल मई के प्रथम पखवाड़े से लेकर जून के प्रथम सप्ताह के बीच कोशी नदी में ललपनियां उतरती है। इस ललपनियां से कोशी नदी क्षेत्र में कहीं खुशी तो कहीं गम का माहौल कायम हो जाता है। खुशी इस बात की दियारा के बालू व चिलचिलाती धूप में अब पांव पैदल नहीं चलना पड़ेगा। किसी न किसी घाट से नाव पर सवाड़ होकर तटबंध पार कर ही लेंगे। पर गम इस बात की कि करीब पांच महीने तक किस रूप में बाढ का तांडव झेलना पड़ेगा यह कहना मुष्किल होता है। खैर, अब तो कोशी नदी के पूर्वी तटबंध के बलुआहा घाट से बलुआहा तक 2000 मीटर लंबे पुल का निर्माण हो गया है। बलुआहा घाट व गंडोल के बीच मुख्य सेतु सहित 3542 मीटर लंबी अन्य 12 अदद पुलों व सड़कों का गंडोल तक निर्माण हो जाने से हरेक साल लोगों का दहलने वाला कलेजा अब थम गया है।
ललपनियां से कोई जवान तो कोई हलकान 
कोशी व दियारा की कृषि व्यवस्था में बाढ के बाद की खेती से सोना जैसी फसल उपजाना अब भी बड़ा आसान है। कोशी की बाढ से आयी नयी मिट्टी व पांक खेतों की उर्वरा शक्ति को अब भी बढा दे रही है। जिसके कारण 8 से 10 मन प्रति कðा मक्के की उपज किसान प्राप्त कर लेते हैं। कोशी व दियारा की हजारों एकड़ जमीन पर कहीं अपराधी तो कहीं दबंगो का कब्जा होता है। ऐसे खेतों में न तो खाद डालना पड़ता है और ना ही पटवन करना पड़ता है। खेती से उपजी फसल मानों किसी ने वरदान में अनाजों की झोली भर दिया हो। छोटे व मझौले किसानों को भी इसका लाभ मिलता है। छोटे व मझौले किसान तो अपनी जमीन की खेती से ही खुशहाल रहते हैं। पर, दोहटवारों सहित बिहार सरकार व गैर मजरूआ जमीन पर कब्जा जमाने के लिए ही अपराधियों के बीच आपस में खूनी टकराहट तक होती है। कोशी की ललपनियां कितने किसानों को जवान तो कितनों को हलकान कर देती है। ललपनियां की लहलहाती खेती से ही दियारा की घरे बसती व उजड़ती भी है। इसी ललपनियां ने गरीबों व दलितों को नक्सल तक का तमगा दिया है। कितने को वंश विहिन कर दिया तो कितने के घर-आंगन खुशहाली से आज भी झूम रही है।
पानी चढने का भी होता है इंतजार
नदी के पानी से वंचित खेतिहर भूमि की उपज आज भी सामान्य से अधिक ही होती है। कोशी नदी का पानी अब भी दियारा क्षेत्र के धार से उपर जिन क्षेत्रों में नहीं पहूंचती है वहां उपज बढाने के लिए किसानों को रसायनिक खाद का भरपूर उपयोग करना पड़ता है। ऐसे क्षेत्रों के किसान बाढ आने के बाद पानी चढने का भी इंतजार करते हैं। ताकि उसके खेतों में भी नयी मिट्टी व पांकी का लाभ मिल सके। हिमालय के रास्ते जमीन पर कदम रखते ही आज भी कोशी नदी किसी के लिए अभिशाप तो किसी के लिए वरदान साबित हो रही है। उनमुक्त कोशी सबके लिए बराबर थी और तटबंध में कैद होने के बाद कोशी नदी की धारा खुशी कम और गम का मंजर अधिक दे जाती है।



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