Thursday, June 30, 2011

दातुन बेचने वाले मासूमों की ज़िन्दगी

पहला आहार बांटने वालों को आखिर कौन देगा निवाला     
बच्चों के प्रति सरकारी व गैर सरकारी संगठनों का काम धोखा साबित हो रहा है  





हर सुबह लोगों को अपनी रात गंवा कर पहला आहार देने वाले बच्चों की जीवन में कौन आहार की व्यवस्था करेगा यह प्रश्न बनता जा रहा है.जबकि बाल श्रम व बंधुआ मजदूरी के लिए एक से एक परियोजना चल रही है और कई सामाजिक संगठन अपने को बच्चों का हिमायती संगठन कहते नहीं थक रहे हैं. लेकिन इन बच्चों के हरी-भरी बगिया में शिक्षा का दीपक कौन जलाएगा यह भी एक गंभीर सवाल बना हुआ है. कोशी व सीमांचल के सभी रेलवे स्टेशनों पर आधी रात से ही दातुन-दातुन कहकर चिल्लाने वाले बच्चों की कमी नहीं रहती है. इन बच्चों के द्वारा दिन भर गांव के क्षेत्रों से काटे गये दातुन से ही अधिकांश लोग अपना पहला आहार शुरू करते हैं.लेकिन पहला आहार बेचने वाले इन बच्चों को भर पेट भोजन भी मिलेगा कि नहीं यह ठीक नहीं रहती है. मेहनत मजदूरी कर दातुन बेचने वाले बच्चे बदमाश, लुच्चा व लम्पटों के अलावा पुलिस वालों के भी शोषण के शिकार होते हैं. इन्हें भी अठन्नी व चवन्नी का टैक्स भरना पड़ता है. बच्चों को अधिकार दिलाने के नाम पर कोशी व पूर्णियां प्रमंडल में सैकड़ों गैर सरकारी संगठन कार्यरत है.लेकिन इन बच्चों के सुधार व जागरूकता के नाम पर मिलने वाली फंड को चुपके से निगल जाया करते है.राष्ट्रीय बाल श्रमिक परियोजना समिति के द्वारा बाल श्रमिक विद्यालयों का संचालन भी किया गया. मगर उपलब्धी वही ढाक के तीन पात. इस प्रकार बच्चों को उनके मौलिक अधिकार व सुविधा प्रदान करने के लिए सरकार तो संकल्पित है. यहां तक कि रेलवे स्टेशनों पर जहंा बच्चे दिन में दातून बेचने के लिए रात भर जागते रहते हैं. वहीं दलाल जनसेवा एक्सप्रेस से बच्चों को मजदूरी कराने के लिए अन्य प्रांत भी ले जाते हैं. मगर सरकार की संकल्प को धरातल पर उतारने की दिशा में गैर सरकारी संगठनों की भूमिका धोखा साबित हो रही है. बच्चे एनजीओ. की कामधेनु गाय बना हुआ है.

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