Thursday, April 30, 2015

बैशाखी आनंद

 ताड़ की ताड़ी से बैशाख में लोग उठाते है अलग-अलग   
                           तरीके से आनंद 
              "जब से चढल  बैशख्खा कि राजाजी चुए लागल" 
ताड़ के पेड़ की विभिन्न प्रजातियों के रस से ताड़ी बनायी जाती है। ताड़ी आदिवासियों व महादलितों का प्रिय और अनुठा पेय पदार्थ की श्रेणी में आती है. सस्ती और आसानी पूर्वक दिन-रात उपलब्ध होने की वजह से नशा के रूप में यह ज्यादा लोकप्रिय पेय पदार्थ है. ताजा सेवन करने पर दवा और बासी होने पर नशा का काम करता है. सेवन करने वाले इसके नशा से काफी मदमस्त हो जाते हैं. ताड़ी दरअसल ताड़ के पेड़ से रिसने वाला श्वेत रंग का रस होता है. जिसे लोग ताड़ी कहते हैं. 
 
ग्रामीण अर्थव्यवस्था में खासकर पासी और महादलित समुदाय में इसकी एक अहम  भूमिका है. ग्रामीण क्षेत्रों में यह देशी बीयर के नाम से प्रचलित है. मौसम की हिसाब व मिजाज से एक बोतल की कीमत  12 रूपये और लबनी की कीमत 60 रुपये होती है. जैसे-जैसे गर्मी बढती जाती है इस पेय का कीमत भी बढ़ते जाता है. कोशी के इलाके के खासकर आदिवासी व महादलित क्षेत्रों में इस पेय को लेकर यह भी गुनगुनाते सुन सकते है कि "बिन ताड़ी चले न गाड़ी" हो राजाजी चुए लागल... 

बैशाख की चिलचिलाती धूप और गरम लबनी का ताड़ी...थोड़ा चखना...पीने वालों के लिए आनंद ही कुछ ओर होता है। ताड़ का पेड़ बड़ा ही उपयोगी होता है. इसमें फलने वाले फल को लोग तरकुआ कहकर क्या बच्चे, क्या बुढे सभी बड़े ही चाव से खाते हैं. ताड़ के फल जब खाने योग्य नहीं रहता है तो उसे मिट्टी के अंदर गाड़ कर उससे निकलने वाले नये पौधे को लोग तारपन कहकर खाते हैं.






 लेकिन इससे निकलने वाले रस को लोग ताड़ी तो कहते हैं, मगर इसे सेवन करने वालों को लोग पियक्कर कह हैं. भला, एक ही पेड़ के फल को अललग-अलग ढंग से उपयोग करने वाले को लोग अलग-अलग नजरो से देखते हैं. ताड़ के पेड़ से दो जाति पासी और कुम्हार का बड़ा तबका इस पेड़ के व्यवसाय पर ही आश्रित है और उनके परिवार का न केवल भरण-पोषण बल्कि बच्चों की पढाई भी ताड़ी पेय के कारोबार से ही पूरी होती है. पता नहीं लोग आखिर घृणा क्यूँ करते है...एक गाना भी प्रचलित है कि "जब से चढल  बैशख्खा कि राजाजी चुए लागल" 
 

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